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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 187 विषय से सम्पर्क होने पर चित्त का अनुकूल विषयों के प्रति राग और प्रतिकूल विषयों के प्रति द्वेष से विरक्त रखना है। इस प्रकार ऋषिभाषित दमन की मनोवैज्ञानिक समस्या का भी सम्यक् समाधान प्रस्तुत करता है। इस चर्चा के अतिरिक्त प्रस्तुत अध्याय में संज्ञा, कषाय आदि मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर भी विचार किया गया है। प्रस्तुत शोध निबन्ध का षष्ठम् अध्याय ऋषिभाषित के आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन दर्शन का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस अध्याय में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की समस्या का विवेचन किया गया है और यह बताया गया है कि नियतिवाद का मुख्य प्रयोजन व्यक्ति में अनासक्त जीवन दृष्टि का विकास करना है। नियति और पुरुषार्थ दोनों ही आध्यात्मिक जीवन दृष्टि साधना के लिये अपेक्षित हैं। अत: जीवन में दोनों का सम्यक स्थान निर्धारित करना आवश्यक है। ऋषिभाषित के मंखलि, गौशालक नियतिवाद के पुरस्कर्ता हैं, किन्तु उनका यह नियतिवाद मुख्य रूप से वित्त समाधि के लिए हैं क्योंकि पुरुषार्थवादी अवधारणा वित्त की विकल्पों से युक्त बनाती है। निवृत्तिमार्गी जीवन दर्शन में नियतिवाद एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के रूप में कार्य करता है, इस तथ्य को ऋषिभाषित मान्य करता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ऋषिभाषित में पुरुषार्थवाद की अवहेलना की गई है। तप और ध्यान साधना तथा सम्यक् आचार के परिपालन के लिए ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों ने पुरुषार्थवाद का समर्थन किया है और उसे साधना क्षेत्र में सक्रिय बने रहने का निर्देश दिया है। ऋषिभाषित का सप्तम अध्याय मुख्य रूप से साधना मार्ग से सम्बन्धित है। इसमें हमने विस्तार से इस तथ्य की चर्चा की है कि ऋषिभाषित के विभिन्न ऋषि किस प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का निर्देश करते हैं। सर्वप्रथम तो ऋषिभाषित में विभिन्न ऋषियों के विचारों का संकलन है। साथ ही ये सभी ऋषि भी एक ही परम्परा के न होकर, विभिन्न परम्परा के हैं। अतः यह स्वाभाविक है कि ऋषिभाषित में किसी एक साधना मार्ग का निर्देश न मिलकर विभिन्न साधना मार्गों का निर्देश हुआ है। कोई ऋषि ज्ञान पर बल देता है तो कोई ध्यान पर। किसी के लिए सदाचार ही साधना का केन्द्र है तो कोई श्रद्धा पर बल देता है। किन्तु कोई श्रद्धा का विरोध करके अश्रद्धा का तात्पर्य सांसारिक व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति अश्रद्धा से ही है। ऋषिभाषित में तेतलीपुत्र इस अश्रद्धा के प्रमुख प्रतिपादक हैं। ऋषिभाषित में वर्णित साधना वैविध्य की चर्चा हमने इस अध्याय में विस्तार से की है। साधना वैविध्य के होते हुए लक्ष्य की एकरूपता उनकी विशिष्टता है। इसी अध्याय में पाव के चातुर्याम तथा अन्य ऋषियों के पंचयाम या पाँच महाव्रतों का भी विवेचन किया गया है, क्योंकि पंचयाम, पंचशील और पंचमहाव्रत भारतीय नैतिक चिन्तन के आधारभूत तथ्य हैं। साथ ही समिति, गुप्ति, परिषद् आदि की भी विस्तृत चर्चा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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