________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
१०. तेतलीपुत्र का साधना मार्ग
तेतलीपुत्र की मोक्ष मार्ग के संदर्भ में जो दृष्टि है, वह ऋषिभाषित के अन्य साधकों से भिन्न है। वे एकमात्र ऐसे ऋषि है, " जो यह कहते हैं कि जहाँ अन्य श्रमण ब्राह्मण श्रद्धा का प्रतिपादन करते हैं। वहाँ में अकेला अश्रद्धा का प्रतिपादन करता हूँ। २३ इस प्रकार तेतलीपुत्र के अनुसार अश्रद्धा ही मुक्ति का मार्ग है । किन्तु यहाँ हमें अश्रद्धा से उनका तात्पर्य क्या है, यह समझ लेना चाहिये । तेतलीपुत्र के अनुसार अनास्था का तात्पर्य धर्म या साधना के प्रति अनास्था नहीं, संसार की व्यवस्था की नियतता के प्रति अनास्था है। दूसरे शब्दों में उनके अनुसार संसार का घटनाक्रम सांयोगिक है और जो इस संसार की सांयोगिकता को समझ लेता है, वह भय ग्रस्त बनता है और भयग्रस्त के लिए श्रामष्य को स्वीकार कर लेना ही एकमात्र मार्ग है। संसार में अनेक बार अकल्पित घटित हो जाता है, अतः संसार अविश्वसनीय है - संसार में कुछ ऐसा नहीं है जिसका विश्वास किया जा सके, अतः संसार का परित्याग ही श्रेयस्कर है । २४ ११. मंखलीपुत्र द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग
खलीपुत्र मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि “जो मोक्षमार्ग के रूप में निवृत्ति के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह राग-द्वेष का निवारण कर सिद्धि को प्राप्त करें । २५ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि मंखलीपुत्र के अनुसार राग-द्वेष का निराकरण ही मोक्ष मार्ग है और यह राग द्वेष का निराकरण ज्ञान के द्वारा ही संभव है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं, "जो ज्ञान को प्राप्त करता है वह निश्चय ही त्राता अर्थात् आत्मरक्षक होता है। इस प्रकार मंखलीपुत्र ज्ञान-मार्ग के प्रवर्तक है।
१२. याज्ञवल्क्य का साधना मार्ग
याज्ञवल्क्य के अनुसार "जहाँ जहाँ लोकेषणा है, वहाँ-वहाँ वित्तेषणा है और जहाँ-जहाँ वित्तेषणा है वहाँ वहाँ लोकेषणा है। अतः मुमुक्षु आत्मा के लिए लोकेषणा और वित्तेषणा का परित्याग करना ही उचित ह । २७ दूसरे शब्दों में वे मोक्ष की प्राप्ति के लिए संन्यास मार्ग की साधना को आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में जो साधक लोकेषणा और वित्तेषणा से ऊपर उठकर निष्काम भाव से श्रमण धर्म का पालन करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
23. इसिभासियाई, 10/1 गद्यभाग
24. वही, 10 / गद्यभाग
25. वही, 11/5
26. वही, 11/1 गद्यभाग 27. वही, 12 / 1 गद्यभाग
Jain Education International
143
13
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org