SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 144 १३. भयाली द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग भयाली ऋषि की दृष्टि में बंधन का मूल कारण कर्म ही है और ये कर्म ममत्व के कारण ही मनुष्य को बाँधते हैं। अतः निर्ममत्व की साधना ही मोक्ष मार्ग हैं।२८ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १४. बाहुक के द्वारा उपदिष्ट मोक्ष मार्ग बाहुक ऋषि की दृष्टि में जो निष्काम भाव से तप या साधना करता है और निष्काम भाव से मरण को प्राप्त होता है, वही व्यक्ति अपनी निष्कामता के कारण सिद्धि को प्राप्त करता है। २९ इस प्रकार बाहुक ऋषि की दृष्टि में निष्कामता ही मोक्ष का मार्ग है। १५. मधुरायण द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग मधुरायण की दृष्टि में दुःखों का, जो मूल कारण है, उसका विनाश करना ही मुक्ति का साधन है। उनके अनुसार दुःख के मूल कारण कर्म माने गए हैं। अतः कर्मों को समाप्त करना ही मधुरायण की दृष्टि में मुक्ति का एकमात्र उपाय है, किन्तु पुन: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्मों को समाप्त कैसे किया जाये? इसके प्रत्युत्तर में मधुरायण कहते हैं कि "जिस प्रकार धूम रहित अग्नि, लेन-देन से रहित ऋण और मंत्र से आहत विष, शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार से नये कर्मों का आदान अथवा आश्रव नहीं होने पर पूर्वार्जित कर्म भी क्षीण होकर नष्ट हो जाते हैं । ३० जिस प्रकार सूर्य की किरणों से पानी अपने स्वभाव को छोड़कर ऊष्ण हो जाता है, किन्तु उन किरणों का साहचर्य समाप्त कर देने पर वह पुनः शीतल हो जाता है ठीक इसी प्रकार जब कर्म और आत्मा के बीच का संपर्क समाप्त कर दिया जाता है, तो कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। १ पुनः कर्म और आत्मा के बीच जो संबंध है वह आसक्ति के कारण है। आसक्ति समाप्त होने पर यह संपर्क का सूत्र टूट जाता है और व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनासक्त होना आवश्यक है। १६. सोरियायण का साधना मार्ग सोरियायण ऋषि के अनुसार दुर्दान्त इन्द्रियों के नियंत्रण में होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। वे इन्द्रिय नियमन को ही मोक्ष का एकमात्र उपाय बताते है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि 'इंद्रियों' का नियमन आवश्यक है, उसी नियमन से राग 28. वही, 13/3 29. वही, 14 / गद्यभाग 30. इसि भासियाइ, 15/25, 27 31. वही, 15/27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy