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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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सप्तम अध्याय
ऋषिभाषित का साधना मार्ग
हम स्पष्ट रूप से यह देख चुके हैं कि ऋषिभाषित की समस्त साधना का लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। निर्वाण का सामान्य तात्पर्य दु:ख की समाप्ति है और यह समाप्ति जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाने में ही मानी गई है। ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि अपने उपदेश के अंत में यही कहता है कि "इस प्रकार का आचरण करने से व्यक्ति विरत-पाप होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाता है और पुनः इस संसार में नहीं आता है।' यद्यपि इस निर्वाण या सिद्धावस्था की प्राप्ति हेतु ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि ने अपनी-अपनी दृष्टि से साधना मार्ग का प्रतिपादन किया है। किसी ने क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों के जय को प्रमुखता दी है तो किसी ने इंद्रियों के संयम को प्रधानता दी है। कोई सम्यकत्व को प्रमुख मानता है, तो कोई अज्ञान का निवारण करके ज्ञान की प्राप्ति को ही दुःख विमुक्ति का उपाय बताता है। इस प्रकार ऋषिभाषित में साधना मार्ग की दृष्टि से विविधताएँ हैं। यहाँ तक कि साधना मार्ग की दृष्टि से उसमें परस्पर विरोधी विचार भी पाये जाते हैं। उसमें कोई श्रद्धा का पाठ पढ़ाता है तो कोई अश्रद्धा को ही प्रमुख मानता है। किसी के अनुसार कठोर तप या देह दण्डन ही निर्वाण की प्राप्ति का उपाय है तो कोई सुविधापूर्ण जीवन के माध्यम से ही दुःख विमुक्ति को संभव मानता है। किसी के लिए दुःखों को सहन करके ही निर्वाण का सुख प्राप्त किया जा सकता है तो किसी की दृष्टि में सुख द्वारा ही
आत्यान्तिक सुख अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति संभव मानी गयी है। कोई तप पर बल देता है तो कोई ध्यान पर। इस प्रकार ऋषिभाषित में निर्वाण मार्ग या साधना मार्ग के संदर्भ में विविध दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण भी मिलते हैं। ऋषिभाषित के किस ऋषि ने किस पक्ष पर, अधिक बल दिया है, उसका संक्षिप्त विवरण क्रमशः निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं
1- 'इसिभासियाई', 1/अन्तभाग, पृ. Jain Education International
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