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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी व्यक्ति किसी के अच्छे और बुरे कर्मों को नहीं जान सकता। इसका तात्पर्य यही है कि आत्मा ही अपने सुकृत और दुष्कृत का सम्यक् मूल्यांकन कर सकता है। दूसरे व्यक्तियों के द्वारा किया गया किसी व्यक्ति का नैतिक मूल्यांकन आवश्यक नहीं कि सत्य ही हो। अंगिरस ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि "बाहरी दुनिया वाले तो कल्याणकारी को पापकारी बताते हैं और पापकारी को सदाचारी बताते हैं। अतः कर्म के मूल्यांकन में अंतरात्मा की भूमिका ही सबसे प्रधान होती है। इसलिए अंगिरस का अंतिम निर्देश यही है, कि जो व्यक्ति स्वयं ही अपने आचार की सम्यक् रूप से समीक्षा करता है और सदैव धर्म मार्ग में सुप्रतिष्ठित रहता है वह जीवन की सन्ध्या में पश्चाताप नहीं करता। कर्म के मूल्यांकन में संकल्प का पक्ष कितना महत्त्वपूर्ण है। इसे स्पष्ट करते हुए अंगिरस ऋषि कहते हैं कि "पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में संकल्पों के द्वारा जो भी सुकृत अथवा दुष्कृत होता है वह कर्ता का अनुगमन करता है।
इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के मूल्यांकन में संकल्प की भूमिका ही प्रधान होती है, बाह्य घटनाएँ नहीं। प्रस्तुत संदर्भ में जो पूर्व रात्रि और अपर रात्रि का जो उल्लेख किया गया है वह महत्त्वपूर्ण है। दिन में तो सामान्यतया बाहय रूप से जो कुछ करता है, दूसरे लोगों के लिए सामान्यतया उसका वही सुकृत या दुष्कृत मूल्यांकन का विषय बनता है किन्तु रात्रि में जब व्यक्ति सोया हुआ होता हैं, तब बाह्य घटनाएँ नहीं संकल्प ही मुख्य होते हैं। उसमें भी मध्य रात्रि की गहरी नींद को छोड़कर पूर्व और अपर रात्रि में संकल्प विकल्पों की दौड़ भाग सर्वाधिक होती है और हमारी दृष्टि में संकल्पों की इस सक्रियता को और उसके नैतिक महत्त्व को स्पष्ट करने के लिए ही अंगिरस ने विशेषरूप से पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के संकल्पों का उल्लेख किया हैं इस समस्त चर्चा का निष्कर्ष यही है कि ऋषिभाषित में संकल्प ही नैतिक मूल्यांकन का विषय है और इस संकल्प का नैतिक मूल्यांकन व्यक्ति अपनी सजग आत्मा के द्वारा कर सकता है।
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39. इसिभासियाई, 4/12 40. वही, 4/13 41. वही, 4/10
42. वही, 4/11 Jain Education International
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