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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
137 सूक्ष्म अथवा स्थूल प्राणियों की हिंसा करता है, वही पाप कर्म से लिप्त होता है।३६ इसी प्रकार परिग्रह के संदर्भ में भी असितदेवल कहते हैं कि "जो साधक मूर्छा या आसक्ति के दोष से युक्त होकर अल्प या अधिक परिग्रह को ग्रहण करता है वह पाप कर्मों से लिप्त होता है।"३७ ऋषिभाषित में असितदेवल के उपरोक्त कथन से स्पष्टरूप से यह स्पष्ट होता है कि हिंसा और परिग्रह के संदर्भ में बाह्य तथ्यों की अपेक्ष आंतरिक वृत्ति ही महत्त्वपूर्ण है। हिंसा तभी हिंसा होती है जब प्राणवध की घटना के साथ वधिक राग द्वेष से युक्त हो। इसी प्रकार कोई भी वस्तु परिग्रह तभी बनती है जबकि व्यक्ति का उसके प्रति मूर्छा या आसक्ति का भाव हो। यह सत्य है कि हिंसा आदि पापकर्म तभी बंधन कारक होते हैं जब उसके पीछे व्यक्ति की मनोवृत्ति राग-द्वेष से युक्त होती है।
इस प्रकार ऋषिभाषित किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार व्यक्ति की प्रवृत्ति को न बनाकर उसकी वृत्ति को बनाता है। यह सत्य है कि सामान्यतया कोई भी प्रवृत्ति वृत्ति का अनुसरण करती है किन्तु नैतिक जीवन के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वृत्ति और प्रवृत्ति में अंतर होता है। जब वृत्ति और प्रवृत्ति में अंतर हो, उस स्थिति में प्रवृत्ति की अपेक्षा वृत्ति ही नैतिक मूल्यांकन का विषय होती हैं। किसी कर्म को नैतिक कसौटी पर कसते समय हमें मुख्य रूप से बाह्य घटना को नहीं, अपितु कर्म प्रेरणा और कर्ता के मनोभावों को ही देखना होता है। ऋषिभाषित के चतुर्थ अध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि "जिस ज्ञान के द्वारा मैं अपनी आत्मा को पहचान सकूँ वहीं ज्ञान अचल और शाश्वत है।"३८ इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व की पहचान व्यक्ति की अंतरात्मा के द्वारा ही संभव है। सामान्यतया दूसरा व्यक्ति तो कर्म का मूल्यांकन कर्म के बाह्य स्वरूप के आधार पर ही करता है। किन्तु उसका मूल्यांकन सदैव सफल नहीं होता क्योंकि व्यक्ति के आंतरिक मनोभावों या वृत्ति के द्रष्टा तो उसकी ही अपनी आत्मा होती है। अतः यदि हम किसी कर्म का सम्यक् मूल्यांकन करना चाहते हैं तो हमें व्यक्ति की प्रवृत्ति और वृत्ति दोनों पर ही विचार करना होगा। किनतु यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रवृत्ति और वृत्ति में वृत्ति ही महत्त्वपूर्ण होती है। पुनः इस वृत्ति के शुभत्व और अशुभत्व का मूल्यांकन दूसरे किसी व्यक्ति के द्वारा न होकर अपनी अन्तरात्मा की साक्षी से ही किया जा सकता है। अत: नैतिक मूल्यांकन में व्यक्ति की अंतरात्मा का कार्य ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। ऋषिभाषित में अगिरस ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि "व्यक्ति अपने सुकृत और दुष्कृत को स्वयं ही जानता है। कोई दूसरा
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