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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
में आता है। क्रोध मान, माया, लोभादि कषाय और हिंसा झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि दुष्प्रवृत्तियाँ इसलिए अनैतिक मानी जाती है, क्योंकि वे न केवल वैयक्तिक समाधि का भंग करती है, अपितु सामाजिक समाधि अर्थात् सामाजिक शांति को भी भंग करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सुख दुःख और विवेक - अविवेक की कसौटियों के साथ-साथ समत्व को भी नैतिकता की एक कसौटी के रूप में स्वीकार करता है।
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पाश्चात्य मानवतावादी विचारकों ने किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता का आधार आत्म चेतनता, विवेकशीलात और संयम को माना है। मानवतावादी विचारकों में इस प्रश्न को लेकर अवश्य मतभेद हैं कि आत्म चेतनता, विवेकशीलता और संयम में से किस गुण को नैतिकता का आधार माना जाय । ३४ किन्तु यदि हम इन तीनों गुणों को एक साथ नैतिकता का आधार मानें तो मानवतावादी विचारणा और ऋषिभाषित एक दूसरे को काफी निकट प्रतीत होते हैं। ऋषिभाषित में प्रमाद अर्थात् आत्मचेतना का अभाव, मिथ्यात्व अर्थात् विवेकशीलता का अभाव, अनिवृत्ति अर्थात् संयम के अभाव को कर्मादान अर्थात् अनैतिकता का कारण माना है । ३५ स्मरण रहे कि यहाँ कषाय का अंतर्भाव प्रमाद में और योग का अंतर्भाव अनिवृत्ति में किया जा सकता है। वस्तुतः कोई मनुष्य केवल इसलिए मनुष्य नहीं कहा जाता कि उसका एक विशिष्ट प्रकार का शारीरिक आकार प्रकार है। जब हम मनुष्य को पशु से पृथक करते हैं तो हमारे सामने तीन ही कसौटियाँ होती है । जहाँ पशु में आत्म चेतना, विवेकशीलता और आत्मसंयम के सामर्थ्य का अभाव होता है। वहाँ मनुष्य में ये तीनों गुण पाये जाते हैं। वस्तुतः ये तीन गुण ही मनुष्य को पशु से पृथक् करते हैं। अतः किसी कर्म के संपादन में इन तीन गुणों की उपस्थिति उस कर्म को नैतिक बना देती है। जबकि इन तीन गुणों का अभाव उसे अनैतिक बना देता है। आत्मचेतना, विवेकशीलता और आत्मनियंत्रण निश्चय ही ऐसे गुण है, जिन्हें हम नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी बना सकते हैं। ऋषिभाषित के उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित भी नैतिकता की कसौटी के रूप में इन तीन गुणों को स्वीकर करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि - ऋषिभाषित में नैतिक मानदण्ड का निरूपण अनेक दृष्टिकोणों से हुआ। नैतिक मूल्यांकन का आधार बाह्य घटना और मनोवृत्ति
नैतिक मानदण्ड के संदर्भ में यह स्मरण रखना चाहिये कि शुभ और अशुभ के संदर्भ में ऋषिभाषित केवल बाह्य घटना के आधार पर कर्म का मूल्यांकन न करके उसके आंतरिक भावपक्ष को ही महत्त्वपूर्ण मानता है। ऋषिभाषित में असितदेवल ऋषि स्पष्टरूप से कहते हैं कि " जो आत्मा राग-द्वेष से अभिभूत होकर
34. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 101
35. 'इसिभासियाई' 9/5
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