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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी के पदार्थों का परित्याग करके प्राज्ञ व्यक्ति उसमें लुब्ध नहीं हो, यही बुद्ध की शिक्षा है । १८५ सजग साधक की पाँचों इन्द्रियों सुप्त होकर अल्प दुःख का कारण बनती है। प्रज्ञावान साधक उन इन्द्रिय जन्य वासनाओं के विनाश के लिए सतत रूप से प्रयत्नशील रहे।" इस प्रकार सारिपुत्त इन्द्रियजय, आत्मसजगता, अनासक्ति और समभाव की साधना को ही मोक्षमार्ग के रूप में प्रतिपादित करते हैं। उनके अनुसार 'जिसके द्वारा मोह का क्षय हो, वही मोक्षमार्ग है। चाहे वह सुखद हो या दुःखद । जिस प्रकार व्याधि के क्षय के लिए स्वादिष्ट अथवा कटुक औषधियाँ दी जाती है, उसी प्रकार मोह के लिए सुकर या दुष्कर साधना मार्ग प्रतिपादित किये जाते हैं। साधना का मुख्य लक्ष्य तो मोह का क्षय है न कि सुख और दुःख की प्राप्ति । जिस प्रकार व्याधि के उपशमन के लिए चिकित्सा की जाती है और उमसें चाहे रोगी को सुख अथवा दुःख की अनुभूति हो, किन्तु चिकित्सक की दृष्टि में तो वहाँ व्याधि का विनाश ही मुख्य लक्ष्य है। इसी प्रकार साधना का लक्ष्य मोह का विनाश है । ८७ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सारिपुत्र न तो सुविधावादी भौतिक जीवन पद्धति के समर्थक है और न वे देह-दण्डन रूप कठोर तप मार्ग के प्रशंसक है । उनके अनुसार तो वही साधना उपयुक्त है, जो हमारे चित्त को अनाकुल दशा में रख सके । यदि मनोज्ञ भोजन मनोज्ञ शय्यासन और मनोज्ञ आवास में निवास करते हुए भी चित्त् निराकुल रह सकता हैं अथवा समाधि पूर्वक ध्यान संभव है, तो वह वर्जित नहीं है।“ साधना का लक्ष्य चित्त वृत्ति की समाधि है, न कि भौतिक सुख या दुःख । अतः जिन साधनों से भी चित्त वृत्ति का समत्व सधता हो, वे सभी साधना मार्ग के रूप में ग्राह्य हो सकते हैं। अतः सारिपुत्र न तो अरण्यवास पर बल देते हैं और न आश्रम में निवास पर । ३९. संजय द्वारा प्रस्तुत आत्मशोधन की पद्धति 156 ऋषिभाषित के 39 वें अध्ययन में संजय नामक ऋषि कहते हैं कि "जो मनुष्य पाप कर्म करता है वह अन्धकार की इच्छा करता है । पाप का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर कदाचित एक बार कोई दुराचरण हो भी जाय तो भी साधक उसे बार-बार नहीं करे, अर्थात् उसका समूह एकत्र नहीं करे, जो साधक पाप कर्मों को न तो स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है उसे देवता भी नमस्कार करते है । " ९१ 85. एवं अणेगण्णागं, तं परिच्चज्ज पण्डिते । -वही 38/4 surत्थ लुब्भई पण्णे, एयं बुद्धह्मण सासणं ।। 86. इसिभासियाई, 38/6 87. वही, 38/7, 8 88. वही, 38/2 89. परिवारे चेव वेसे य, भावतिं तु विभावए । परिवारे वि गंम्भीरे, ण राया णीलजम्बुओ || 90. दव्वे खेत्ते य काले य, सव्वभावे य सव्वधा । सव्वेसिं लिंगजीवाणं, भावाणं तु विहावए ।। 91. वही, 39 / 1, 2, 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only -इसिभासियाइ, 38/25 -वही 38/29 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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