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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 155 व्यक्ति को स्वयं विकल बनाता है और अभिव्यक्त करने पर स्वयं को और दूसरों को भस्मीभूत करता है-महत्त्वपूर्ण है। उनके इस कथन से यह स्पष्ट है कि वे दमन के साधनामार्ग के समर्थक नहीं है, दूसरे शब्दों में, वे यह मानते हैं कि वासना और कषायों को उपशमित कर देने मात्र से उनसे मुक्ति नहीं मिलती, दमित वासनाएँ व्यक्ति के चित् को उद्धेति करती रहती है। अत: वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उनको निर्मूल बनाना आवश्यक है। वासनाओं की निर्मल बनाने का तात्पर्य उनके कारणों का विश्लेषण कर उन्हें समाप्त कर देना ही है। इसे ही जैन परंपरा में क्षायिक मार्ग कहा गया है। यह कहा जा सकता है कि वे उपशम (दमन) के मार्ग के स्थान पर क्षय (निरसन) के मार्ग का प्रतिपादन करते हैं। उनके अनुसार क्रोध या द्वेष ही वह तथ्य है जिसका निरसन करके व्यक्ति साधना के क्षेत्र में प्रगति कर सकता है। ३७. श्रीगिरि का आचार मार्ग ऋषिभाषित के 37वें अध्याय में हमे श्रीगिरि के उपदेशों का चित्रण उपलब्ध होता है, किन्तु श्रीगिरि के उपदेशों का मुख्य भाग तो सृष्टि के स्वरूप संबंधी विवेचन है। वे सृष्टि संबंधी उस युग की विभिन्न अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हुए सृष्टि की अनादिता और यथार्थता का प्रतिपादन करते हैं।८२ जहाँ तक उनके मोक्ष मार्ग संबंधी साधना मार्ग का प्रश्न है वह अल्पतम ही है। वे केवल अपने आचार संबंधी कुछ नियमों को प्रस्तुत करते हैं वे कहते हैं कि "श्रमण को सूर्य के साथ गमन करना चाहिये अर्थात् सूर्य उदय से सूर्यास्त तक ही यात्रा करना चाहिये। सूर्यास्त होने पर जो भी भूमि उपलब्ध हो वही रूक जाना चाहिये, साथ ही यह भी बताया गया है कि वह जिस दिशा में गमन करें, युग मात्र भूमि को देखकर गमन करें। इस प्रकार इस अध्याय में मात्र श्रमण की विहार चर्या का उल्लेख मिलता है। आचार संबंधी अन्य कोई प्रतिपादन इसमें उपलब्ध नहीं होता है।४३ इससे हम मात्र यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उनके अनुसार सतत विचरण करते हुए अनासक्त जीवन शैली को ही मोक्ष प्राप्ति का उपाय माना गया होगा। ३८. सारिपुत्र का मध्यम मार्ग ऋषिभाषित के 38वें अध्याय में सारिपुत्र कहते हैं कि "पण्डित जन को सदैव समत्वभाव में रहना चाहिये। उनके अनुसार "उपलब्ध होने वाले अनेक प्रकार 81. कोहेण अप्पं डहती परं च, अत्थं च धम्म च तहेव काम। तिव्वं च वेरं पि करेन्ति कोधा, अधरं गतिं वा वि उविन्ति कोहा। हळं करेतीह णिरुज्झमाणो, भासं करेतीह विमुच्चमाणो। हठं च भासं च समिक्ख पण्णे, कोवं णिरुंभेज्ज सदा जित्तप्पा। -इसिभासियाई, 36/14, 18 वही, 37/1-3 गद्यभाग 83. वही, 37/गद्यभाग, पृ. 167 84. वही, 38/5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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