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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 157 संजय ने उपर्युक्त कथन का आशय मात्र इतना ही है कि साधक पाप कर्म न करें। यदि किसी विशिष्ट परिस्थिति में दुराचरण हो भी जाय तो उसकी आवृत्ति न करें और इस प्रकार दुराचरण से दूर रहे, यही मुक्ति मार्ग है। इस अध्याय के अंत में संजय ने विशेष रूप से जिद्धेन्द्रिय के वशीभूत नहीं होने का निर्देश दिया है। संभवतः उनकी दृष्टि में समस्त पापों का मूल कारण स्वाद-लोलुपता रहा हो और इसलिए उन्होंने रसनेन्द्रिय के विजय पर विशेषरूप से बल दिया है। ४०. द्वैपायन की इच्छाजय की साधना पद्धति द्वैयापन ऋषि अपने साधना मार्ग में विशेष रूप से इच्छाओं पर विजय पाने के लिए बल देते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में इच्छाओं की उपस्थिति ही मानसिक असमाधि या अशान्ति का कारण है। जो साधक इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है वह निराकांक्ष व्यक्ति समाधि या आत्मशांति को प्राप्त कर लेता है। वे कहते हैं कि संसार में अनेक प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं और इच्छाओं से बद्ध होकर ही जीव कलेश को प्राप्त होता है। इच्छा ही धनहानि और बंधनों का मूल है। इच्छा करने वाले को नहीं चाहती है अपितु अनिच्छुक को ही चाहती है। दूसरे शब्दों में इच्छाओं के माध्यम से व्यक्ति जिस आत्मिक सुख और शांति की अपेक्षा करता है उसे इच्छा के द्वारा नहीं पाया जा सकता, अपितु अनिच्छा के द्वारा ही पाया जा सकता हैं।१२ अतः द्वैयापन कहते हैं कि जो अनिच्छा के द्वारा इच्छा पर विजय प्राप्त कर लेता है वही सुख को प्राप्त होता है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में निराकांधता ही मोक्ष का मार्ग ४१. इन्द्रनाग का इन्द्रियसंयम का साधना मार्ग ऋषिभाषित में इंद्रनाग अपने साधना मार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि "जो साधक इन्द्रियों के विषय में लिप्त होता है, वह स्वयं अपने ही दु:ख का मार्ग प्रशस्त करता है। घृत की ओर आकर्षित मक्खी अथवा मधुबिन्दु को प्राप्त करने वाला दुर्बुद्धि मनुष्य अपने मृत्यु को नहीं देखता है। मांसलोलुप मत्स्य स्वयं ही जाकर काटे में अपने को फंसाता है। अतः साधक को इन्द्रिय विषयों से विरत रहने का प्रयत्न 92. इच्छा बहुविधा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति। तम्हा इच्छमणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधती।। इच्छामूलं नियच्छन्ति, धणहाणि बन्धणाणि या वियविप्पओगे य बहू, जम्माई मरणाणि या इच्छन्तेणिच्छते इच्छा, अणिच्छं तं पि इच्छति। तम्हा इच्छं अणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेहती।। 93. इसिभासियाई, 40/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only -इसिभासियाई, 40/2, 4,5 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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