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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी करना चाहिये।"९४ वे इस तथ्य पर विशेष रूप से बल देते हैं कि "संसार में कुछ व्यक्ति ज्ञान, तप और चारित्र को भी अपनी आजीविका का साधन बनाकर जीते हैं किन्तु उनका यह जीवनयापन दोषपूर्ण है। विद्या, मंत्र, दुष्कार्य, भविष्य कथन आदि के माध्यम से जो मुनि अपना जीवन निर्वाह करता है, वह वस्तुतः दोषपूर्ण जीवन ही जीता है।"१५ उनकी दृष्टि में तप और ज्ञान का प्रदर्शन ही मोक्ष का मार्ग नहीं हो सकता है। वे कहते हैं कि "जो अज्ञानी साधक एक-एक महीने में कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करता है, वह भी श्रुताख्यात धर्म अर्थात् आत्मधर्म के शतांश को भी प्राप्त नहीं करता है।"१६ इसका आशय है कि उनकी दृष्टि में आत्मसंयम और आत्मतोष यही मात्र मुक्ति का उपाय है। ४२. सोम की अहिंसक जीवन दृष्टि
ऋषिभाषित में सोम ऋषि अपने साधना मार्ग का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि "साधक की सावध अर्थात् पाप कर्म का सेवन नहीं करते हुए निर्वद्य अर्थात् अपाप की स्थिति में रहना चाहिये। इस निर्वद्य अहिंसक साधना पद्धति में क्रमशः विकास की दिशा में आगे बढ़ना चाहिये।"९७ इस प्रकार उनकी दृष्टि में हिंसा और पाप कर्मों से विरत होकर अहिंसामय जीवन जीना ही मोक्ष का मार्ग है। ४३. यम ऋषि की समत्व की साधना पद्धति
ऋषिभाषित में यम नामक अर्हत ऋषि का कथन है कि जो लाभ में प्रसन्न नहीं होता और अलाभ में दुःखी नहीं होता, वही व्यक्ति मनुष्यों में श्रेष्ठ है।" इस प्रकार यम ऋषि के अनुसार लाभ और अलाभ में समभाव से जीवन जीना यही साधना का मूलभूत लक्ष्य है। इस प्रकार इन्हें समत्वपूर्ण जीवन शैली का उपदेशक कहा जा सकता है।
-इसिभासियाई, 41/5,6
94. पक्खिणो घतकुम्भे वा, अवसा पावेन्ति संखयां
मधु पास्यति दुर्बुद्धी, पवातं से ण पस्सति।। आमिसत्थी झसो चेव, मग्गते अप्पणा गलं।
आमिसत्थी चरित्तं तु, जीवे हिंसति दुम्मती।। 95. विजामन्तोप देसेहिं, दूतीसंपेसणेहिं वा।
भावीभवोवदेसेहिं, अविसुद्धं तु जीवति।। 96. मासे मासे य जो बालो, कुसग्गेण आहारए।
ण से सुक्खायधम्मस्स, अग्घती सतिमं कला 97. वही, 42/गद्यभाग पृ. 186 98. लाभमि जे ण सुमणो, अलाभे णेव दुम्मणो।
से हु सेढे मणुस्साणं, देवाणं व सयक्कऊ।
-वही, 41/10
- वही, 41/12
-वही, 43/1
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