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________________ 159 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ४४. वरूण की वीतरागता की साधना विधि - ऋषिभाषित के 44वें अध्याय में वरुण नामक ऋषि का कथन है कि जिसकी आत्मा राग और द्वेष से उत्पीडित नहीं होती, वही साधक समभाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार वे अपने साधना मार्ग में वीतराग जीवनदृष्टि को ही प्रमुखता देते ४५. वैश्रमण की आत्मार्थ की साधना ऋषिभाषित के अंतिम अध्याय में वैश्रमण नामक ऋषि के उपदेशों का संकलन है। वैश्रमण के अनुसार आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और वही उसके फल का भोक्ता है, अतः आत्मार्थ के लिए व्यक्ति को पाप का मार्ग त्याग देना चाहिये, वे यह भी बताते हैं कि जो व्यक्ति दूसरों के अहित के लिए प्रयत्न करता है, वह स्वयं अपना ही अहित करता है। इसलिए साधक को सम्यक् प्रकार से संयम मार्ग की साधना करना चाहिये।१०० चातुर्याम और पंचमहाव्रत भारतीय साधना की सभी परंपराओं में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महत्त्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है। हिंदू परंपरा में इन्हें पांच यमों के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। पञ्चयम योग-साधना की प्रथम भूमिका है।०९ पांच यमों का पालन करके ही योग-साधना के अग्रिम चरणों पर आगे बढ़ा जा सकता है। पतञ्जलि ने योगसूत्र में इन्हें महाव्रत भी कहा है। बौद्ध परंपरा में भी इन्हें पंचशील के रूप में स्वीकार किया गया हैं।१०२ किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि बौद्ध परंपरा में पंचशीलों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य तो समान रूप से स्वीकार किये गए हैं, किन्तु उसमें अपरिग्रह के स्थान पर मादक द्रव्यों के निषेध को पञ्चम शील माना गया है। उसके पंचशीलों में अपरिग्रह का उल्लेख नहीं है। उसके स्थान पर मादक द्रव्य सेवन निषेध है। जहाँ तक जैन परंपरा का प्रश्न है उसमें पांच महाव्रतों के रूप में इन्हें मान्यता प्राप्त है।०३ -वही 44/प्रारंभ -इसिभासियाई, 45/10 99. दोहिं अंगेहिं उप्पीलन्तेहिं आता जस्स ण उप्पीलति 100. आता कड़ाह कम्माणं, आता भुंजति जं फल। तम्हा आयस्स अट्ठाए, णावमादाय वजए।। 101. भारतीय दर्शन, दत्त एवं चटर्जी, पृ. 192 102. विनयपिटक महावग्ग, 1/56 103. (अ) "हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्" (ब) महव्वए पंच अणुव्वएय. तहेव. पंचासव संवरे य। विरतिं इह सामणियमिपन्ने, लवावसक्की समणे तिबेमि। -तवार्थसूत्रम्, 71 -सूत्रकृतंगसूत्रम्, 2/6/6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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