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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी
यद्यपि महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्व की परंपरा पंच महाव्रतों के स्थान पर चातुर्याम धर्म का उल्लेख करती है। चातुर्याम के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, और बाह्य वस्तुओं के ग्रहण के निषेध (अपरिग्रह ) का उल्लेख मिलता है । १०४ ऋषिभाषित में पंच महाव्रत और चातुर्याम दोनों का उल्लेख है। १०५ पार्श्व की परंपरा में स्त्री को भी परिग्रह में परिगृहीत करके परिग्रह के निषेध के रूप में स्त्री का भी निषेध समाहित मान लिया था। किन्तु महावीर की परंपरा में अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को एक दूसरे से स्वतंत्र करके पांच महाव्रतों की स्थापना की गईं।
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जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है हम यह उल्लेख कर चुके हैं कि उसमें हमें चातुर्याम और पंच महाव्रत दोनों का ही उल्लेख मिलता है। ऋषिभाषित के प्रथम नारद नामक अध्ययन में और 31वें पार्श्व नामक अध्ययन में चातुर्यामों का उल्लेख मिलता है। पार्श्व नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से चातुर्याम का नामोल्लेख भी किया गया है। १०६ नारद नामक प्रथम अध्ययन में यद्यपि स्पष्टरूप से चातुर्याम शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है किन्तु उसमें शौच ( पवित्रता) के चार लक्षणों का निरूपण किया गया है। इन चार लक्षणों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय को तो स्वतंत्र रूप से एक-एक लक्षण माना गया हैं । किन्तु ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को मिलाकर शौच का चौथा लक्षण बताया गया है। १०७ इस प्रकार इस प्रथम अध्याय में भी चातुर्याम की अवधारणा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। वस्तुतः चातुर्याम और पंच महाव्रत में मौलिक रूप से कोई अंतर नहीं है । जब स्त्री को परिग्रह मानकर परिग्रह के निषेध में स्त्री के भोग का निषेध भी मान लिया जाता है तो यह चातुर्याम धर्म का रूप ले लेता है और जब इन दोनों को एक दूसरे से स्वतंत्र मान लिया जाता है तो वह पंच महाव्रत या पंच याम का रूप ले लेता है।
ऋषिभाषित में पंच महाव्रतों का स्पष्ट रूप से उल्लेख पांचवें, चौतीसवें और पैतालीसवें अध्यायों में पाया जाता है। पांचवें 'पुष्पशाल' नामक अध्ययन में कहा गया है कि प्राणों की हिंसा न करें, अलीक वचन न बोले, चोर्यवृत्ति का त्याग करें, मैथुन
104. (अ) चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ।
देसिओ वद्धमाणेण, पासेणय महामुनी ।।
(ब) पंचजमा पठमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि । आवश्यक निर्युक्ति, 236
105. (अ) इसिभासियाइ, 31/ गद्यभाग
(ब) पंचमहव्वयजुत्ते, अकसाए जितिन्दिए । से हू दन्ते सुहं सुयति, णिरुवसग्गे य जीवति ।।
106. (अ) इसिभासियाइ, 1/2 गद्यभाग (ब) वही, 31 / गद्यभाग
107. इसि भासियाइ, 1/2 गद्यभाग
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-उत्तराध्ययन, 23/12
- वही, 34/6
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