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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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उत्पादन के सोलह दोष९३० (१) धात्री धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिलाकर, हंसा रमाकर आहार लेना। (२) दूती दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना। (३) निमित्त शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना। (४) आजीव आहार के लिए जाति, कुल आदि बताना। (५) वनीपक गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना। (६) चिकित्सा
औषधि आदि बताकर आहार लेना। (७) क्रोध क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना। (८) मान अपना प्रभुत्व जमाकर आहार लेना। (९) माया छल कपट से आहार लेना। (१०) लोभ सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना। (११) पूर्वपश्चात्संस्तव दानदाता के माता-पिता अथवा सास-ससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना। (१२) विद्या
जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करना। 130. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन, पृ. 371
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