________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
101 कर्म की शुभाशुभता का मूल्यांकन करने के लिए हमें अनेक प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं, कछ लोग यह मानते हैं कि वे कर्म ही शुभ कहे जा सकते है, जो व्यक्ति के आत्म कल्याण में साधक है, किन्तु इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि वे कर्म शुभ माने जाने चाहिये जिनसे लोक कल्याण या लोक मंगल होता है। सामान्यतया जो कर्म स्वार्थवश किये जाते हैं वे अनैतिक या पापकर्म कहलाते हैं और जो परार्थ हेतु किये जाते हैं, वे पुण्य कर्म कहलाते हैं। आगे हम इस प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से चर्चा करेंगे।
ऋषिभाषित में किसी कर्म के सुकृत या दुष्कृत होने के निर्णय का आधार आत्मा को ही माना गया है। उनमें कहा गया है कि "व्यक्ति स्वयं" ही अपने सुकृत या दुष्कृत कर्म को जानता है, किन्तु अन्य व्यक्ति किसी दूसरे के अच्छे या बुरे कर्म को नहीं जान सकता है। क्योंकि बाहरी लोग तो कल्याणकारी को पापकारी और पापकारी को कल्याणकारी कह देते हैं।२३ इसका तात्पर्य यह है कि पुण्य और पाप का आधार व्यक्ति की अंतरात्मा ही है। कर्म का बाह्य रूप उसका आधार नहीं हो सकता, बाह्य जनों के द्वारा किसी कर्म की निंदा और प्रशंसा कोई अर्थ नहीं रखती है। उसी में कहा गया है कि "उलूक जिसकी प्रशंसा करें और कौवे जिसकी निंदा करें, वह निंदा और प्रशंसा दोनों ही वायु जाल की तरह निरर्थक होती है।४ आगे और भी स्पष्ट कहा गया है कि किसी अन्य व्यक्ति के कहने से कोई चोर नहीं बन जाता और किसी दूसरे के कहने से कोई मुनि भी नहीं बन जाता। वह मुनि है या चोर है यह तो स्वयं वहीं जानता है।५ इस प्रकार ऋषिभाषित में कर्म का शुभाशुभत्व का आधार व्यक्ति की अपनी अंतरात्मा को माना गया है। निष्कर्ष यह है कि कार्य का पुण्य रूप अथवा पापरूप होना इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि वह कर्म किस रूप में संपादित हुआ है। अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि उस कर्म का प्रेरकतत्त्व या संकल्प क्या था? पाश्चात्यदर्शन की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित में पुण्य और पाप की कसौटी व्यक्ति की अंतरात्मा को ही माना गया है।
पुनः कौनसा कर्म व्यक्ति के लिए बंधन कारक होता है और कौन सा कर्म उसे मुक्ति की दिशा में ले जाता है, यह प्रश्न भी कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ऋषिभाषित के 14वें बाहुक नामक अध्ययन में इस संबंध में बहुत ही स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। उसमें कहा गया है कि जो कामना सहित प्रव्रजित
23. -'इसिभासियाई', 4/12, 13 24. जंउलका पसंसन्ति, जंवा णिन्दन्ति वायसा।
णिन्दा वा सा पसंसा वा, वायु जाले व्व गच्छति।। 25. णऽण्णस्स वयणाऽचोरे, णऽण्णस्स वयणाऽमुणी।
अप्पं अप्पा वियाणाति, जे वा उत्तमणाणिणो।।
-वही, 4/19
-वही, 4/16
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org