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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी कर्म के शुभाशुभत्त्व का आधार संकल्प
ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से कहा गया है कि पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में संकल्पों के द्वारा जो अनेक अच्छे या बुरे कार्य किये जाते हैं वे कर्ता का अनुगमन करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने शुभाशुभ संकल्पों के द्वारा जो अच्छे या बुरे कर्म करता है, वे कर्म उन संकल्पों के आधार पर अपना अच्छा और बुरा फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस गाथा में ऋषिभाषितकार यह स्पष्ट कर देता है कि कर्म की शुभाशुभता उसके संकल्प पर निर्भर होती है। कर्म के दो पक्ष माने गये हैं-(1) कर्म का संकल्प और कर्म की परिणति, ऋषिभाषित के अंगिरस नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि कर्म के दो पक्ष माने गये हैं-(1) कर्म का संकल्प और कर्म की परिणति ऋषिभाषित के अंगिरस नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि कर्म के शुभाशुभ होने का आधार कर्म का बाह्य रूप में घटित होना नहीं, अपितु कर्त्ता का संकल्प होता है। कर्म की शुभाशुभता का निर्णय कर्म के परिणामों के आधार पर नहीं अपितु कर्ता के संकल्प के आधार पर ही किया जाना चाहिये। उदाहरण के रूप में हम यह कह सकते हैं कि एक डॉक्टर किसी रोगी को बचाने के लिए आपरेशन करता है, यह हो सकता है कि उस आपरेशन के दौरान रोगी की मृत्यु हो जाए, फिर भी डॉक्टर पाप का बंध न करके पुण्य का ही बंध करेगा क्योंकि उसका संकल्प मारने का न होकर बचाने का था। इस प्रकार ऋषिभाषित कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय के प्रसंग में कर्म परिणाम पर विचार न करके कर्ता के संकल्प को ही प्रमुखता देता है।
पाश्चात्य नीतिशास्त्र में कर्म की शुभाशुभता के संदर्भ में उसके प्रेरक और उसके अभिप्राय को लेकर एक विवाद देखा जाता हैं। ऋषिभाषित में इस संदर्भ में जिस कर्म संकल्प को नैतिक मूल्य का आधार बनाया गया हैं वह अपने में कर्म के प्रेरकतत्त्व और कर्ता के अभिप्राय दोनों को ही समाहित कर लेता है। क्योंकि संकल्प में प्रेरकतत्त्व और अभिप्राय दोनों निहित है, इतना स्पष्ट है कि ऋषिभाषितकार की दृष्टि में कर्म की शुभाशुभता का मूल्यांकन कर्म के बाह्य घटित परिणाम के आधार पर नहीं, अपितु कर्ता के संकल्प के आधार पर होना चाहिये।२२
19. पुव्वरत्तावरत्तम्मि संकप्पेण बहुं कडं। सुकडं दुक्कडं वा वि, कत्तारमणुगच्छइ।।
-इसिभासियाई, 4/12 20. भुंजित्तुच्चावए भोए, संकप्पे कडमाण से। आदाणरक्खी पुरिसे, परं किंचि ण जाणति।।
-वही,4/8 21. देखें-जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
-(डॉ. सागर मल जैन), भाग 1, पृ. 82-94 22. भुंजितुच्चावए. . . . . . .ण जाणति।
-'इसिभासियाई' 4/8
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