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________________ 99 ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन देते हैं वहीं उनके शुभ कर्म पितरों का उद्धार भी कर देते हैं। इस प्रकार हिन्दू धर्म के अनुसार व्यक्ति के शुभाशुभ कर्म पूर्वजों और संतानों को प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों के फल का संविभाग हो सकता है। इस संबंध में लोकमान्य तिलक ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में भी चर्चा की हैं। इसके विपरीत डॉ. जैन के अनुसार बौद्ध धर्म यह कहता है कि व्यक्ति अपने शुभ कर्मों में दूसरों को भागीदार बना सकता हैं किन्तु अशुभ कर्मों में दूसरा व्यक्ति भागीदार नहीं बन सकता। हम अपने पुण्यों का फल दूसरों को दे सकते हैं, किन्तु अपने पाप के फल में दूसरों को भागीदार नहीं बना सकते। दूसरे शब्दों में, बौद्ध धर्म के अनुसार पुण्य का संविभाग हो सकता है। पाप का संविभाग नहीं हो सकता।'५ तीसरा दृष्टिकोण जैन धर्म का है जिसके अनुसार व्यक्ति अपने शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों के प्रतिफल में अन्य किसी को भागीदार नहीं बना सकता है। न तो पुण्य का ही संविभाग हो सकता है और न पाप का। जो जैसा कर्म करता है, उसे अपने कर्म का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मफल विभाग के प्रश्न पर जैनों का दृष्टिकोण ऋषिभाषित में पार्श्व नामक अध्ययन में वर्णित इस सिद्धांत का ही विकास है कि जीव स्वकृत कर्मों के शुभाशुभ फल को भोगता है परकृत कर्म को नहीं।६ ऋषिभाषित में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा स्वयं ही कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही उसके कर्मों को फल का भोग करता है। इसलिए जो आत्मा के कल्याण का इच्छुक है, वह पाप कर्मों से विमुख हो। कर्म के शुभत्व एवं अशुभत्व का आधार ऋषिभाषित में पाप-पुण्य अथवा शुभ-अशुभ के रूप में कर्मों को विवेचन किया गया है। सुकृत एवं दुष्कृत और कल्याणकर एवं पापकर के रूप में भी कर्मों का वर्गीकरण उपलब्ध होता है।८ सुकृत और दुष्कृत कर्मों को ही क्रमशः कल्याणकारी कर्म और पापकारी कर्म अथवा शुभ कर्म और अशुभ कर्म कहा जाता है। इन्हें हम पुण्य कर्म और पाप कर्म भी कह सकते है। -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 317 -'इसिभासियाई' 31/9 'स' -'इसिभासियाई' 15/21 15. "जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" 16. कम्म पप्प फलविवाको......! आता-कडाण कम्माणं, आता भंजति जं फलं। तम्हा आतस्स अट्ठाए, पावमादाय वज्जए। सकडं दुक्कडं वा वि, अप्पणो यावि जाणति। ण य णं अण्णो विजाणाति, सुक्कडं व दुक्कडं णरं कल्लाणकारिं पि, पावकारि ति बाहिरा। पावकारिं पिते बुया, सीलमंतो ति बाहिरा। -वही 4/13, 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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