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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित स्पष्टरूप से इस मान्यता को स्थापित करता है कि व्यक्ति स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के ही फल को प्राप्त करता है।
__ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में भी स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि “जीव आत्मकृत कर्मों का ही भोग करता है। परकृत कर्मों के फल का भोग नहीं करता है।"११ जैन आगम भगवती सूत्र में प्राणी किन कर्मों के फल का भोग करता है इस संदर्भ में एक त्रिभंगी प्रस्तुत की गई है।१२
1-जीव स्वकृत कर्मों के फल का भोग करता है 2-जीव परकृत कर्मों के फल का भोग करता है।
3-जीव स्वकृत और परकृत दोनों ही प्रकार के कर्मों का भोग करता है। उपर्युक्त तीनों विकल्पों में से जहाँ ऋषिभाषित एवं जैन दर्शन मात्र प्रथम विकल्प को स्वीकार करता है।१३ वहीं शून्यवादी बौद्ध दर्शन उपर्युक्त तीनों विकल्पों में से अपने अनात्मवादी और क्षणिकवादी दृष्टिकोण को आधार पर चतुर्थ विकल्प स्वीकार करता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट लगता है कि परवर्ती जैन दर्शन में भी ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व के इस दृष्टिकोण का ही प्रभाव देखा जाता है कि जीव स्वकृत कर्म के शुभाशुभ फल को भोगता है, परकृत कर्म के फल को नहीं भोगता है। जबकि बौद्ध दर्शन स्वकृत अशुभ और स्व-परकृत शुभ फल को भोगता है, ऐसा माना गया है। जहाँ तक हिंदू परंपरा का प्रश्न है उसमें स्व-परकृत शुभाशुभ कर्म का भोग मानता है। कर्मफल संविभाग
इसी प्रश्न से जुड़ा हुआ एक प्रश्न कर्मफल के संविभाग से संबंधित भी है। इस संबंध में हमें भारतीय धर्म एवं दर्शनों में तीन प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं-इन तीनों दृष्टिकोणों का विस्तृत विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ "जैन बौद्ध और गीता के आचार दशनों का तुलनात्मक अध्ययन" में किया है, उनके अनुसार "जहाँ हिंदू परंपरा में व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का प्रभाव अपनी संतान अथवा अपने परिजनों पर भी पड़ता है यह माना गया है। साथ ही हिन्दू धर्म स्पष्टरूप से यह भी कहा गया है कि संतान के अपवित्र कर्म जहाँ पितरों को स्वर्ग से भी गिरा
11. कम्मं पप्प फलविवाको जीवाणं, परिणामं पप्प फलविवाको पोग्गलाण।
-'इसिभासियाई', 31/9 गद्यभाग (स) 12. सा भते किं अत्तकडा कज्जइ? परकडा कज्जइ? तदुभथ कडाकज्जइ गोयमा। अत्तकडाकज्जइ, नो परकडाकज्जइ, मो तदुभयकडा कज्ज।
-भगवई प्रथम शतक षष्ठउद्देशक 179 13. अत्तकडा जीवा णो परकडा किच्चा वेदेन्ति।
--'इसिभासियाइ' 31/9 (गद्यभाग 'इ') 14. संयुत्तनिकाय 12/17-उद्धृत आगम युग का जैन दर्शन (पं. दलसुख मालवणिया) पृ.48 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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