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________________ 110 १. मानवमन की जटिलता ऋषिभाषित यद्यपि मनोविज्ञान का ग्रंथ न होकर नैतिक और धार्मिक उपदेशों का ग्रंथ है, फिर भी उसमें मानव प्रकृति का सूक्ष्म विवेचन हमें उपलब्ध होता है । ऋषिभाषित के चतुर्थ 'अंगिरस' नामक अध्ययन में मनुष्य की जो दोहरी जीवन शैली है, उसके संबंध में पर्याप्त गंभीर रूप से विचार किया गया है। उसमें कहा गया है कि " जिसके द्वारा अपनी आत्मा को पहचाना जा सके और जिसके द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष में आचरित शुभ या अशुभ कर्मों को जाना जा सके वही ज्ञान अचल और शाश्वत है। "" इस कथन का तात्पर्य यही है कि जो ज्ञान हमें अपनी प्रकृति को समझने में सहायक होता है, वहीं ज्ञान यथार्थ होता है। मानव मन का विश्लेषण करते हुए ऋषिभाषित में कहा गया है कि " दीवार और काष्ठ पर चित्रित चित्र को समझना सरल होता हैं । किन्तु मनुष्य के हृदय को समझ पाना अति गहन और दुशक्य है। २. व्यक्ति का दोहरापन 1. जिन व्यक्तियों के मनोभावों में, उनके आचरण में अर्थात् उनकी वाणी और व्यवहार में एकरूपता न हो ऐसे व्यक्ति अत्यन्त जटिल गहन होते हैं। अर्थात उनको समझ पाना अत्यंत कठिन होता है। इसी तथ्य को आगे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि " जो व्यक्ति सभा में अर्थात् प्रकट रूप से कुछ अन्य आचरण करता है और एकान्त में कुछ अन्य आचरण करता है, वह अपने को पाप कर्म से नहीं बच सकता । * 2. 3. पंचम अध्याय ऋषिभाषित में प्रतिपादित मनोविज्ञान 4. डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जेण जाणामि अप्पाणं, आवी वा जति वा रहे । अज्जयारिं अणज्जं वा, तं गाणं अलं ध्रुवं ॥ | सुयाणि भित्तिए चित्तं, कटठे वा सुणिवेसितं । मणुस्सहिदयं पुणिणं, गहणं दुव्वियाणकं । । अण्णा स मणे होई, अण्णं कुणन्ति कम्मुणा । अण्णमण्णाणि भासन्ते, मणुस्सगहणे हुसे || अदुवा परिसामज्झो, अदुवा वि रहे कडं । ततो णिरिक्ख अप्पाणं, पावकम्मा णिरुम्भति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only - इसिभासियाई 4/4 - वही, 4/5 - इसिभासियाई 4/6 -वही, 4/9 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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