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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 109 ही प्रतिध्वनि सुनाई देती है। अत: व्यक्ति का जैसा शुभाशुभ कर्म होता है उसकी वैसी ही प्रतिक्रिया होती है। अतः साधक यह समझकर साधक को अशुभ कर्मों का आचरण नहीं करना चाहिये। यही ऋषिभाषित के कर्म सिद्धान्त का सार तत्त्व है। कर्म से मुक्ति कर्म मल से आत्मा किस प्रकार मुक्त हो सकता है इस संदर्भ में ऋषिभाषित के 'महाकाश्यप' नामक अध्ययन में विस्तार से विवेचन किया गया है उसमें कहा गया है कि "साधक शास्त्र के अनुसार सम्यक् आचरण कर और दोषों के आगमन को रोककर पूर्वार्जित विद्या को नियंत्रित कर कर्म व्याधि का नाश करता है। प्रस्तुत अध्याय में यह भी बताया गया हैकि कर्म आदान का निरोध करके ही तथा पूर्वोपार्जित कर्मों को निर्जीर्ण करके ही साधक दु:खों का क्षय करता है। जिस प्रकार मलीन वस्त्र को जल द्वारा शुद्ध किया जाता है वैसे ही सम्यक्त्व वासिन आत्मा ध्यान रूपी जल से अपने को शुद्ध करता है। जैसे सुहागी आदि पदार्थों से स्वर्ण की मलीनता नष्ट हो जाती है वैसे ही तप की माध्यम से अनादि कर्म संतति नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार जल धारा के मध्य में रही हुई नौका अनाकुल होती है वैसे ही कर्म लेप से रहित आत्मा भी अनाकुल होती है।"४८ 20 47. कल्लाणं ति भणन्तस्स, कल्लाणा एपडिस्सुया। __ पावकं ति भणन्तस्स, पावया तेएपडिस्सुया।। - इसिभासियाई,30/8 48. कम्मायाणेऽरुद्धम्मि, सम्मं मग्गाणुसारिणा। पुव्वाउत्ते य णिज्जिण्णे, खयं दुक्खं णियच्छती।। जहा आतवसंततं, वत्थं सुन्झइ वारिणा। सम्मत्तसंजुत्तो अप्पा, तहा झाणेण सुज्झती।। कंचणस्स जहा धाऊजोगेणं मुच्चए मल। अणाईए वि संताणे, तवाओ कम्मसंक।। -वही, 925, 28, 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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