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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी कर्मों का फल भोग आवश्यक नहीं होता, कुछ कर्मों को तप और साधना के द्वारा उनका फल भोगे बिना ही नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार ऋषिभाषित एक समग्र कर्म सिद्धान्त का विवेचन करता है, चाहे उसमें वे सूक्ष्मताएँ न आ पाई हों जो कि परवर्ती जैन दर्शन में हमकों मिलती हैं। किन्तु इतना अवश्य ही हम कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के 9वें, 31वें आदि अध्यायों में कर्म सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, वह अन्य किसी प्राचीन ग्रंथों में नहीं देखा जाता है। कर्म और कर्मफल का संबंध
कर्म और कर्मफल के संबंध के प्रश्न पर ऋषिभाषित के 30 वें वायु नामक अध्ययन में, जो विवेचन किया गया है, वह निम्न है-सर्वप्रथम जो भी कर्म किये जाते हैं उनका परलोक में फल तो भोगना ही पड़ता है। जैसे वृक्ष की जड़ों का सिंचन करने पर उसकी शाखओं में फल तो दिखाई देंगे।५ अर्थात् कर्म अपना विपाक या फल तो देते ही हैं। पुनः जिस प्रकार का बीज होता है उसी प्रकार का फल उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है। वैसा ही फल भोगता है।
"कल्याणकारी कर्मों से कल्याण प्राप्त होता है। और पापकारी कर्मों से पाप प्राप्त होता हैं। हिंसक कृत्यों को करने वाला हिंसा को प्राप्त होता हैं। (मारा जाता है) और जय को प्राप्त करने वाला पराजित भी होता है। दुःख देने वाले को दुःख भोगना पड़ता है। निंदा करने वाला निन्दित भी होता है। जो आक्रोश करता है उसे आक्रोश को सहन भी करना पड़ता है क्योंकि कोई भी कर्म निरर्थक नहीं होता। संसार में कड़वे को कड़वा, कठोर को कठोर और मधुर को मधुर फल मिलता है।
कल्याणकारी कर्मों का परिणाम सदैव कल्याणकारी ही होता है। कल्याण की बात बोलने वाला कल्याण की ही प्रतिध्वनि सुनता है और पाप की बात बोलने वाला पाप की ही प्रतिध्वनि सुनता है अर्थात् व्यक्ति को संसार में अपने कर्मों की
45. इध जं कीरते कम्म, तं परतोवभुज्जइ।
मूल सेकेसु रूक्खेसु, फलं साहासु दिस्सति।।
-वही, 30/n
46. कल्लाणां लभति कल्लाणं, पावं पावा तु पावति।
हिंसं लभति हन्तारं, जइत्ता य पराजय।। सूदणं सूदइत्ताणं, णिन्दित्ता वि य णिन्दणं। अक्कोसइत्ता अक्कोसं, णत्थि कम्मं णिरत्थक।। मण्णन्ति भद्दका भद्दकाइ, मधुरं मधुरं तिमाणति। कडुयं कडुयंभणियं ति, फरूसं फरूसं ति माणति।।
-"इसिभासियाइ"30/5,6,7
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