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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन . के अनुसार "अर्हत पार्श्व की स्वयं पार्श्व तीर्थंकर है। ऋषिभाषित में इनका चातुर्याम" का उपदेश इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि "पार्श्व ऋषि" ही वस्तुतः तीर्थंकर पार्श्व हैं।
जैन परंपरा में पार्श्व का उल्लेख सूत्रकृतांग, भगवती, कल्पसूत्र, निरियावलिका आदि ग्रंथों में उपलब्ध हाता है।१३६ इन ग्रंथों में न केवल पार्श्व का नामोल्लेख मिलता है अपितु उनके जीवन दर्शन, परंपरा, आचार, विचार आदि का एक विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययन एवं भगवती में महावीर और पार्श्व की आचारगत और विचारगत मान्यताओं का अंतर भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। पार्वापत्य श्रमण प्रायः सुविधावादी या भोगवादी माने गए हैं। इसीलिए उनके लिए 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत प्रसंग में 'पासत्थ' शब्द शिथिलाचार का प्रतीक है। पाश्र्वापत्य श्रमण जब महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए तब उनके साथ अनेक शिथिलताएँ भी उसमें प्रविष्ट हुई।
जहाँ तक बौद्ध और वैदिक परंपराओं का प्रश्न है पार्श्व के संबंध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। किन्तु बौद्ध परंपरा में "निग्गंठ जातपुत्त" के नाम से जिस चातुर्याम का उल्लेख मिलता है, वस्तुतः वह तीर्थकर पार्श्व का ही चातुर्याम है।
उपर्युक्त चर्चा से यह तो स्पष्ट है कि पार्श्व एक ऐतिहासिक पुरुष हैं। इस संबंध में सभी विद्वान भी एकमत हैं।
ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व के उपदेश में जैन मान्यताओं के प्राचीन रूप दृष्टिगत होते हैं। इस अध्याय में पार्श्व के दर्शन और आचारगत मान्यताओं का स्पष्टरूप से प्रतिपादन हुआ है। अध्याय के प्रारंभ में ही लोक, और गति के प्रकार, स्वरूप और अर्थ का विवेचन हुआ है। साथ ही जीव एवं पुद्गल की गति-प्रक्रिया का भी उल्लेख हुआ है। स्मरणीय तथ्य तो यह है कि लोक की शाश्वतता स्वीकार करते हुए भी वे उसे न तो बौद्धों की तरह मात्र परिणामी ही मानते हैं और न कूटस्थ नित्य ही, अपितु परिणामी-नित्य कहकर जैन परंपरा की दार्शनिक अवधारणा का ही पोषण करते हैं।
पुनः इस अध्याय में चातुर्याम, कषाय, प्राणातिपात अर्थात् हिंसा से निवृत्ति, अचित पदार्थों का आहार आदि की चर्चा हुई है जो स्पष्टतः जैनावार का ही पौषक
136. (अ) सूत्रकृतांगसूत्र 2/7/8
(ब) भगवती सूत्र 1/9/423
(स) निरियावलिका 3/1 Jain Education International
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