________________
ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
77 उत्कल नामक अध्याय में पंच महाभूतों से आत्मा या चेतना के उत्पन्न होने का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी पंचमहाभूतवादियों का सिद्धांत विस्तार से उपलब्ध है। किन्तु ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन की विशेषता यह है कि उसमें संसार के मूलतत्त्व के रूप में जड़ और चेतन दोनों को ही सृष्टि का आधार माना गया है।"
___ इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित में जहाँ एक ओर सृष्टि के मूलतत्त्व के संदर्भ में विशुद्ध रूप से भौतिकवादी दृष्टिकोण उपलब्ध है, जो यह मानता है कि जड़ से ही चित्त जगत की सृष्टि होती है, वहीं दूसरी ओर उसमें वह दृष्टिकोण भी उपलब्ध है। जिसमें जड़ और चेतन दोनों को ही सृष्टि का मूलतत्त्व माना गया है। यद्यपि यह आश्चर्य का विषय है कि इसमें सृष्टि के मूलतत्त्व के संदर्भ में विशुद्ध रूप से अध्यात्मवादी दृष्टिकोण उपलब्ध नहीं होता है, यद्यपि सिरिगिरि नामक 37वें अध्याय में यह अवश्य कहा गया है कि यह जगत अण्डे से उत्पन्न हुआ है। इस अध्याय के अनुसार अण्डा सन्तप्त हुआ और फूटा। फलतः लोक उत्पन्न हुआ और वह श्वसित हुआ। किन्तु इसे अध्यात्मवादी दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता है। अतः तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से हमें ऋषिभाषित में दो प्रकार के दृष्टिकोण ही उपलब्ध होते
(1) सृष्टि का मूलतत्त्व भौतिक या जड़ है और (2) यह कि सृष्टि के मूलतत्त्व जड़ और चेतन दोनों ही है। लोकसृष्टा का प्रश्न
सष्टि किसी के द्वारा उत्पन्न की गई है अथवा वह स्वय ही अस्तिववान है, यह प्रश्न भी तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ऋषिभाषित में 37 वें अध्याय में एक स्थान पर यह अवश्य कहा गया है कि कुछ लोगों की यह मान्यता है कि
6. से किं सं 'रज्जुक्कले'? रज्जुक्कले णामं जे णं रज्जुदिट्ठन्तेणं समुद्रयमेत्तपण्णवणाए पंचमहब्भूतखन्धमत्ता
भिधाणाई संसारसंसति वोच्छदंवदति। से सं रज्जुक्कले। -'इसिभासियाई' 20 वां अध्ययन-गद्यभाग 2।।3।। 7. संति पंच महब्भूया, इह मेगेसिमाहिया।
पुढवी आउ तेऊ, वा वाउ आगासंपचंमा।।7।। पंच महब्भूया, तेब्भो एगोत्ति आहिया।। अह तेसिं विणासेण, विणासो होई देहिणे।।8।।
-'सूत्रकृतांग' 1-1-17, 8 गाथाएँ 8. अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वत्तिं पडुच्च जीवाणं चेव अजीवाणं चेव।
-'इसिभासियाई' 31वां अध्ययन-गद्यभाग 3 9. से किं तं "दण्डुक्कले"? दण्डुक्कले नाम जेणं दण्डुट्टितेणं आदिल्लमन्झवसाणाणं पण्णवणाए "समुदयमेत्ता" भिधाणाइं"णत्थि सरीरातो परं जीवो" त्ति भगवति वोच्छेयं वदति। से तं दण्डुक्कले।
-'इसिभासियाई' 20 वां अध्ययन. गद्यभाग। 10. अत्तभावे लोए सामित्तं पडुच्च जीवाणं लोए, निव्वत्तिं पड़च्च जीवाणं चेव आजीवाणं चेव।
-वही, 31वां अध्ययन, गद्यभाग 3
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org