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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
द्वितीय अध्याय में प्रस्तुत ग्रंथ में उपलब्ध ज्ञानमीमांसीय चिन्तन को विवेचित करने का निर्णय लिया था, किन्तु जैसाकि मैं पूर्व में कह चुकी हूँ कि ऋषिभाषित में ज्ञानमीमांसा से संबंधित दार्शनिक चिंतन का प्रायः अभाव ही पाया गया। अतः यह अध्याय मुख्य रूप से जीवन और साधना के क्षेत्र में ज्ञान के महत्त्व और उपयोगिता को ही स्पष्ट करता है।
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तृतीय अध्याय ऋषिभाषित की तत्त्वमीमांसा से संबंधित है। इस अध्याय को हमनें दो भागों में विभाजित किया है। (1) सृष्टि संबंधी सिद्धांत और (2) तात्त्विक अवधारणाएँ। सृष्टि संबंधी सिद्धांतों में प्रस्तुत ग्रंथ में जल एवं अण्डे से सृष्टि की उत्पत्ति के सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। किन्तु ऋषिभाषित का ऋषि इस सिद्धांत को अस्वीकार करता है। साथ ही ऋषिभाषित सृष्टि के माया संबंधी सिद्धांत को भी अस्वीकार करता है । वह सृष्टि को अनादि नित्य और शाश्वत मानता है । तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं में पंच महाभूतवाद, देहात्मवाद, स्कन्धवाद, सन्ततिवाद, शून्यवाद, आत्मकूटस्थतावाद, पंचास्तिकायवाद, आदि की चर्चा उपलब्ध होती है। यद्यपि ये सभी सिद्धांत मूल ग्रंथ में अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही पाये जाते हैं। इन सिद्धांतों की दार्शनिक समीक्षा का भी उसमें अभाव है।
चतुर्थ अध्याय कर्म सिद्धांत से संबंधित है। इसमें न केवल कर्म के शुभाशुभ प्रकारों की चर्चा की गई है, अपितु बंधन के कारणों तथा कर्म की विविध अवस्थाओं का भी उल्लेख किया गया है।
पाँचवाँ अध्याय मुख्य रूप से ऋषिभाषित के मनोवैज्ञानिक तथ्यों का विवरण प्रस्तुत करता है। इसमें मानव मन की जटिलता, व्यक्तित्त्व के दोहरेपन, इन्द्रियदमन का तात्पर्य और क्रोधादि कषायों की चर्चा की गई है।
प्रस्तुत शोध प्रबंध का छठा अध्याय ऋषिभाषित के नैतिक दर्शन से संबंधित है। इसमें नैतिकता की पूर्वमान्यता के रूप में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद की चर्चा की गई है। साथ ही नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन के सिद्धांतों पर भी प्रकाश
डाला गया।
प्रस्तुत शोध प्रबंध का सप्तम अध्याय ऋषिभाषित के साधना मार्ग से संबंधित है। इस अध्याय में हमने ऋषिभाषित के पैंतालिस ही ऋषियों के साधना मार्ग की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की है। यद्यपि इसके अनेक ऋषियों के साधना मार्ग संबंधी उपदेशों में शाब्दिक अंतर को छोड़कर मुख्य रूप से समानता ही पाई जाती है। क्योंकि सभी ऋषि निवृत्तिमार्गी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसलिए संन्यास, वैराग्य और संयम को ही महत्त्व देते हैं।
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