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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन को अपने पुरुषार्थ में विश्वास रखना चाहिये और किसी के समक्ष अपनी हार न मानते हुए प्रयत्नशील रहना चाहिये। वस्तुतः वही वीर कहलाने योग्य है जो अपने चारित्र की रक्षा में स्वयं को बलि चढ़ा देते हैं।
ऋषिभाषित में मातङ्ग ऋषि सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो इन्द्रिय संयम, शील और सदाचार का पालन करता है वही सच्चा माहण अर्थात् ब्राह्मण होता है।१२२ आगे इसी अध्याय में अपने-अपने कुलधर्म और पद के अनुरूप कार्य करने का निर्देश देते हुए कहते हैं कि यदि क्षत्रिय और वैश्य यज्ञ करें, ब्राह्मण शस्त्र धारण करें तो इनका आचरण ठीक वैसा ही है जैसे दो अन्धे विपरीत दिशा से गमन करते हुए भी टकरा जाते हैं।१२३ पुनः इस अध्याय में वे आध्यात्मिक कृषि का वर्णन करते हैं और इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार अध्यात्म भावों से ओत प्रोत खेती चाहे ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र और क्षत्रिय कोई भी करें वह विशुद्धि को उपलब्ध करता है।१२४
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऋषिभाषित में मातङ्ग द्वारा उपदिष्ट सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप की तुलना उत्तराध्ययन के 25वें अध्ययन और बौद्ध ग्रंथ धम्मपद से की जा सकती है। अंतर केवल विस्तार और संक्षेप का है विषय-वस्तु का नहीं। इसी प्रकार आध्यात्मिक कृषि की तुलना ऋषिभाषित के बत्तीसवें अध्याय से और सुत्तनिपात के कसिभारद्वाजसुत्त के उरग वर्ग से की जा सकती है।
उपयुक्त वर्णन के अनुसार इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये महावीर और बुद्ध के पूर्वगामी कोई अध्यात्म के पथ प्रदर्शक संत रहे होंगे। २७. वारत्तक
जैन परंपरा में वारत्तक का उल्लेख न केवल ऋषिभाषित में उपलब्ध होता है, अपितु आवश्यक चूर्णि और अन्तकृतदशा में भी उपलब्ध होता हैं।१२५ आवश्यक चूर्णि इन्हे राजा अभयसेन के अमात्य के रूप में उल्लिखित करती है, जो कि वारत्तपुर नगर के निवासी थे और उसमें यह भी कहा गया है कि ये धर्मघोष आचार्य के पास दीक्षित हुए थे। अन्तकृत् दशा इन्हें राजगृह के एक व्यापारी के रूप में उल्लिखित करती है। जबकि ऋषिमण्डल वृत्ति में इन्हें नैमित्तिक मुनि का रूप प्रदत्त है।१२६ 122. सव्विदिएहिं गुत्तेहिं, सच्चप्पेही समाहणे। - सीलंगेहिं णिउत्तेहिं, सीलप्पेही स माहणे।
-इसिभासियाई 26/6 123. रायाणो वणिया? जागे, माहणासत्थ जीविणो। अन्धेण जुगेणद्वे, विपल्लत्थे उत्तराधरे।।
-वही, 26/2 124. इसिभासियाई, 26/15, . 125. (अ) आवश्यक. चूर्णि भाग 2, पृ. 199
(ब) अन्तकृतदशा, वर्ग 6/9 अध्ययन 126. ऋषिमण्डलवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only
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