________________
54
डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी बौद्ध परंपरा में वारत्तक का उल्लेख वारणथेर के रूप में उपलब्ध होता है। किन्तु यह कहना मुश्किल है कि वारत्तक और वारणथेर एक ही व्यक्ति होंगे। इस परंपरा के अनुसार ये जंगल निवासी किसी भिक्षु की प्रेरणा से प्रव्रजित हुए थे।
वैदिक परंपरा इनके संबंध में मौन है। अतः प्रमाणाभाव में यह कहना आसान नहीं है कि वस्तुतः ये पौराणिक पुरुष है या ऐतिहासिक।
वारत्तक अर्हत् ऋषि ने ऋषिभाषित के सत्ताइसवें अध्याय में सच्चे श्रमण के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि श्रमण को सांसारिक व्यक्ति के संपर्क से दूर रहकर स्नेह का परित्याग कर स्वाध्याय ध्यान में रमण करना चाहिये।१२७ पुनः सच्चे श्रमणत्व की पुष्टि करते हुए यह भी कहा गया है कि श्रमण को कौतूहल, लक्षण, स्वप्न आदि के मनोरंजन से अलग रहना चाहिये।
उपर्युक्त उपदेश की तुलना उत्तराध्ययन के सत्रहवें "पाप श्रमण" नामक अध्याय से की जा सकती है। शाब्दिक भिन्नता होते हुए भी विषय वस्तु का एकत्व स्पष्ट रूप से द्रष्टव्य है। २८. आर्द्रक
___ऋषिभाषित के अटठाइसवें अध्ययन में आर्द्रक ऋषि के उपदेश संकलित है। ऋषिभाषित के साथ-साथ इनका उल्लेख सूत्रकृतांग एवं सूत्रकृतांगचूर्णि में भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग चूर्णि में आर्द्रक के जीवन से संबंधित दो कथाएँ उल्लिखित हैं, एक वर्तमान जीवन पर प्रकाश डालती है तो दूसरी अतीत जीवन की स्थिति को स्पष्ट करती है। सूत्रकृतांग चूर्णि इन्हें राजपुत्र के रूप में उल्लिखित करती है और यह बताती है कि अभयकुमार द्वारा प्रेषित ऋषभ की प्रतिमा के निमित्त से इन्हें वैराग्य की उपलब्धि हुई थी। बसन्तपुर की एक लड़की इन्हें खेल-खेल में अपना पति स्वीकार कर लेती है। अन्ततोगत्वा ये उस लड़की से शादी कर लेते हैं किन्तु कुछ समय के पश्चात पुनः विरक्त हो जाते हैं। कथानकों से इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि ये बुद्ध और महावीर युगीन कोई ऐतिहासिक ऋषि रहे होंगे।
जहाँ तक बौद्ध और वैदिक परंपरा का प्रश्न है, उनमें इनका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए इन्हें ब्राह्मण परंपरा के ऋषि कहना कठिन है, अपितु मात्र जैन ग्रंथों में इनका उल्लेख होने से ऐसा लगता है कि इनका संबंध जैन श्रमण परंपरा से रहा होगा।
127. न चिरं जणे संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वड्ढती।
भिक्खुस्स अणिच्चचारिणो, अत्तट्टे कम्मा दुहायती।। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-इसिभासियाई 27/1
www.jainelibrary.org