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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन ऋषिभाषित में उल्लिखित आर्द्रक ऋषि का मुख्य उपदेश कामभोगों से विरक्ति का संदेश देता है। उनके अनुसार मनुष्य के दुःख का कारण काम-वासना है। कामवासना को अनेक शब्दों से संबोधित करते हुए कहते हैं कि काम ही शल्य, विष, आशीविष सर्प और प्रचण्ड वासना है।१२८ काम की व्यापकता और क्षेत्र विस्तार का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि देव, गंधर्व पशु-पक्षी और मानव सभी काम-रूपी पिंजरे में आबद्ध होकर नाना प्रकार के कष्टों का अनुभव करते हैं।१२९ साथ ही वे इस ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं कि वही व्यक्ति धन्यवाद के पात्र हैं, जो धीर, जितेन्द्रिय और कामरूपी पिशाच से मुक्त हो गए हैं।१३० २९. वर्द्धमान ऋषिभाषित का उन्तीसवाँ अध्ययन वर्द्धमान से संबंधित है। वर्द्धमान नाम सामने आते ही हमारा ध्यान सहज ही उस ओर आकर्षित होता है कि क्या प्रस्तुत वर्द्धमान जैन परंपरा में प्रचलित चौबीसवें तीर्थंकर हैं या कोई अन्य परंपरा के ऋषि है? इस संदर्भ में डॉ. सागरमल जैन ने 'इसिभासियाई' की भूमिका में प्रमाण सहित जो विचार व्यक्त किये हैं वे बिल्कुल युक्ति संगत प्रतीत होते हैं। उनके अनुसार "ये वर्द्धमान जैन परंपरा के तीर्थंकर ही हैं, क्योंकि थेरगाथा की अट्ठकथा में भी वर्द्धमान थेर को वैशाली का लिच्छवी वंशीय राजकुमार कहा गया है, जिनकी संगति वर्द्धमान महावीर के साथ बैठती है।" साथ ही वे तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस तथ्य को भी स्पष्ट करते हैं कि थेरगाथा के सभी थेर बौद्ध परंपरा के ही नहीं हैं, उसमें बुद्ध से पूर्ववर्ती अनेक श्रेष्ठ श्रमणों के उद्गार भी सम्मिलित हैं। किन्तु साम्प्रदायिक अभिनिवेश में उन्हें बौद्ध परंपरा के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है।१३१ पालि बौद्ध साहित्य में वर्द्धमान का उल्लेख निग्गंठ नातपुत्त के रूप में हुआ जैन परंपरा में वर्द्धमान का जीवन-चरित्रज्ञाचारांग सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र आदि में विस्तार से उपलब्ध होता है।१३३ ऋषिभाषित में वर्णित उपदेशों से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, कि वर्द्धमान जैन परंपरा के तीर्थंकर हैं। क्योंकि अध्ययन के प्रारंभ में ही यह कहा गया 128. सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। बहुसाधारणा कामा, कामा संसार वड्ढणा।। -इसिभासियाई, 28/4 129. सदेवोरगगन्धव्वं सतिरिक्खं समाणुसं। कामपंजरसंबद्धं, किस्सते विविहं जग।। -इसिभासियाई, 28/17 130. कामग्गहविणिमुक्का, धण्णा धीरा जितिन्दिया। वितरन्ति मेइणिं रम्मं, सुद्धप्पा सुद्धवादिणो।। - वही, 28/18 131. देखें "ऋषिभाषित की भूमिका'' (डॉ. सागरमल जैन) 132. दीघनिकाय, सामजपलसुत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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