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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी समिति का पालन, संयम का पालन, प्राण रक्षण और धर्म चिन्तन के लिए आहार की गवेषणा करें।१२७
___ इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित श्रमण साधक को भिक्षाचर्या के प्रति अत्यन्त सजग रहने का निर्देश करता है। मुनि को किस प्रकार से भिक्षाचर्या करना चाहिये इसका ऋषिभाषित में प्रस्तुत उपरोक्त विवरण निम्न तथ्यों को प्रस्तुत करता
(1)
(3)
(4)
किसी एक ही गृहस्थ के यहाँ से संपूर्ण भोजन प्राप्त नहीं करना चाहिये। दूसरे शब्दों में परिभ्रमण करते हुए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भिक्षा सामग्री प्राप्त करना चाहिये। भोजन स्वयं नहीं पकाना चाहिये। अपने लिए निर्मित भोजन भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। दूसरे शब्दों में औद्देशिक भोजन नहीं लेना चाहिये। भोजन में प्राप्त सामग्री नवकोटि विशुद्ध होना चाहिये अर्थात् वह मन, वचन
और कर्म से तथा कृत, कारित और अनुमोदन के दोष से रहित होना चाहिये। भिक्षा दस दोषों से रहित होना चाहिये. किन्तु ऋषिभाषित में हमें यह स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है कि भिक्षा के ये दस दोष (अतिचार) कौन से है। संभवतः निर्ग्रन्थ परंपरा में एषणा के जो दस दोष माने गए हैं वे ही यहाँ संकेत किये गए होंगे। निर्ग्रन्थ परंपरा में एषणा के निम्न दस दोष माने गए हैं।१२८ (१) शङ्कित आधाकर्मादि दोषों की शङ्का होने पर भी आहारादि लेना। (२) प्रक्षित सचित्त का संघट्टा होने पर अहार लेना। (३) निक्षिप्त सचित्त पर रक्खा हुआ आहार लेना। (४) पिहित सचित्त से ढंका हुआ आहार लेना।
127. इसिभासियाई,25/6 128. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ सागरमल जैन, पृ. 172
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