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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
(५) संहृत पात्र में पहले से रक्खे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से लेना। (६) दायक शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना। (७) उन्मिश्र सचित्त से मिश्रित आहार लेना। (८) अपरिणत पूरे तौर पर बिना पके शाकादि लेना। (९) लिप्त दही, घृत आदि से लिप्त पात्र या हाथ से आहार लेना क्योंकि भिक्षा देने के पहले और पीछे हाथ या पात्र धोने के कारण क्रमशः पूर्व कर्म तथा पश्चात् कर्म दोष होता है। (१०) छद्रित
छींटे नीचे गिर रहे हो, ऐसा आहार लेना। __ (6) भिक्षा उद्गम और उत्पादन के दोषों से भी रहित होना चाहिये। ज्ञातव्य है
कि निर्ग्रन्थ परंपरा में भिक्षा के उद्गम और उत्पादन से संबंधित सोलह-सोलह दोष माने गए हैं। ऋषिभाषित यद्यपि स्पष्ट रूप से सोलह की संख्या का निर्देश नहीं करता है, किन्तु यह स्पष्ट है कि उसे भी निर्ग्रन्थ परंपरा में मान्य उद्गम और उत्पादन के निम्न सोलह-सोलह दोष ही अभिप्रेत होंगे।
उद्गम के सोलह दोष २९ (१) आधाकर्म विशेष साधु के उद्देश्य से आहार बनाना। (२) औदेशिक सामान्य भिक्षुओं के उद्देश्य से आहार बनाना। (३) पूतिकर्म शुद्ध आहार को अशुद्ध आहार से मिश्रित करना।
(४) मिश्रजात 129. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 371
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