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________________ 150 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी विरत रहना अर्थात् अहिसक एवं अपरिग्रही होना और संयम मार्ग का पालन करना यही मोक्ष मार्ग है।६० इस अध्याय में अन्यत्र उन्होंने यह भी कहा है कि जो मन और कषायों पर विजय प्राप्त करके सम्यक् प्रकार से तप करता है, वह शुद्ध अग्नि के समान दैदीप्यमान होता है। उपर्युक्त गाथा के आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि कषायों और मन पर नियंत्रण रखना तथा सम्यक् तप की साधना ही आत्म विशुद्धि का मार्ग है। मोक्ष मार्ग की इस चर्चा के प्रसंग में इस अध्याय में सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो कही गई है वह यह है कि इन्द्रिय निग्रह का तात्पर्य इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख कर देना नहीं है, अपितु इन्द्रियों के द्वारा अपने विषयों के ग्रहण करते समय उत्पन्न होने वाले राग आर द्वष के मनोभावों पर नियंत्रण रखना है।६२ वर्धमान ऋषि ने इस तथ्य को बहुत ही स्पष्ट तरीके से समझााया है कि जो अप्रमत्त है, उस साधक की पांचों इन्द्रियाँ सुप्त होती हैं और जा प्रमत्त है उस साधक की पांचों इन्द्रियाँ सक्रिय होती है।६३ इसका तात्पर्य यह है कि इंद्रियों की सक्रियता और निष्क्रियता साधक की मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए वे स्पष्टरूप से यह निर्देश देते हैं कि इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में साधक राग नहीं करें और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष नहीं करें।६४ दूसरे शब्दों में, इद्रिय संयम का तात्पर्य राग-द्वेष की वृत्तियों का निवारण है, जो साधक राग द्वेष की वृत्तियों से रहित हो जाता है वह मोक्ष मार्ग में परायण होता है।६५ ३०. वायुऋषि द्वारा प्रस्तुत शुभाचरण का संदेश ऋषिभाषित के 30वें अध्ययन में वायुऋषि यह प्रतिपादन करते हैं कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है, वह उसी प्रकार के फल को प्राप्त करता है। उनकी दृष्टि में यह संसार व्यक्ति के कर्मों की ही प्रतिध्वनि है। उनके शब्दों में कल्याणवचन बोलने वाला कल्याण की प्रतिध्वनि सुनता है और अकल्याणकारी वचन बोलने वाला अकल्याण की प्रतिध्वनि सुनता है। दूसरे शब्दों में कल्याण कारी कार्यों को करने -वही, 29/17 60. इसिभासियाई, 29/19 61. जित्ता मणं कसाए या, जो सम्म कुरुते तवं। संदिप्पते स सुद्धप्पा, अग्गी वा हविसाऽऽहुते।। 62. वही, 29/3-13 63. पंच जागरओ सुत्ता, पंच सुत्तस्स जागरा। पंचहिं रयमादियति. पंचहिं च रयं ठए।। 64. वही, 29/3-13 65. वही, 29/19 कल्लाणं ति भणन्तस्स, कल्लाणा एप्पडिसुया। पावकं ति भणन्तस्स, पावया एप्पडिस्सया। -वही 29/2 -वही, 30/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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