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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक उद्दालक ऋषि के उपदेश का प्रश्न है, ये भी अन्य श्रमण परंपरा के ऋषियों की तरह निवृत्ति का ही उपदेश देते हैं। वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि जीव क्रोधादि काषयिक परिणामों से युक्त होकर पापकर्म करता है और संसार परिभ्रमण करता है किन्तु इनसे मुक्त या विरत होन के लिए त्रिगुप्ति से गुप्त, पंचेन्द्रिय संयम, और शल्य रहित होना आवश्यक है।१५८
प्रस्तुत अध्याय में जैन परंपरा में प्रचलित अवधारणाओं का उल्लेख और जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग अधिक दृष्टिगोचर होता है। ३६. (नारायण) तारायण
नारायण ऋषि का उल्लेख जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में वर्णित बाहुल, नाभि, असित देवल आदि के साथ भी हुआ है। 159 इसके अतिरिक्त जैनों में नौ वासुदेव, नौ बलदेव के नाम उल्लिखित हैं उसमें नवें वासुदेव का नाम नारायण कहा गया है।
बौद्ध परंपरा में "नारायण ऋषि" के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती है। नारायण ऋषि का तालमेल हिन्दू परंपरा के साथ अधिक बैठता है। क्योंकि सामान्यतया वर्तमान में हिंदू परंपरा में नारायण शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए होता है। उसमें ईश्वर और नारायण पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। नारद ऋषि का सुविश्रुत मंत्र "नारायण नारायण" आज भी प्रचलित ही है। महाभारत में नर-नारायण नामक ऋषियुगल का उल्लेख है।१६० इनके संबंध में यह भी कहा गया है कि इन्होंने बद्रिकाश्रम में रहकर तपाराधना की थी और यह भी माना गया है कि नारद के साथ इनका संवाद हुआ था।
इनके उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय क्रोधाग्नि की प्रचण्डता का प्रतिपादन करना है। वे क्रोधाग्नि की बाहरी अग्नि से तुलना करते हुए कहते हैं कि बाहर की आग को पानी से बुझाया जा सकता है किन्तु क्रोधरूप अग्नि को संपूर्ण जल से भी बुझाना असंभव है।१६१ नारायण ऋषि की दृष्टि में अग्नि या कोप ही अंधकार, मृत्यु, विष, व्याधि, मोह एवं पराजय है।१६२ उनके अनुसार बन्धन और जन्म मरण का मूल भी क्रोध ही है।
-'इसिभासियाई' 35/ गद्य भाग प्रारंभ
158. चउहि ठाणेहि. . . .. पंचसमिते पंचेन्द्रियसंवुडे। 159. सूत्रकृतांगसूत्र 1/3/4/2 160. महाभारत नामानुक्रमणिका, पृ. 175 161. सक्का वण्ही णिवारेतुं, वारिणा जलितो बहि।
सव्वोदहिजलेणावि, कोवग्गी दुण्णिवारओ। 162. वही, 36/1
-इसिभासियाई 36/5
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