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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 63 प्रस्तुत नारायण ऋषि के संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से विचार करना चाहें तो प्रथम प्रश्न यह सामने आता है कि क्या इनका संबंध जैन परंपरा में अन्यत्र उल्लिखित आठवें वासुदेव से हैं१६३ जिनका नाम नारायण है जिन्हें लक्ष्मण भी कहा गया है। अथवा क्या वैदिक परंपरा के नारायण (ईश्वर) से इनका कोई संबंध है? ऐसा कोई प्रामाणिक आधार नहीं है, जिससे इन्हें वासुदेव नारायण कहा जा सके। परन्तु इनका संबंध हिन्दू परंपरा के नारायण नामक ऋषि से जोड़ा जा सकता है। ३७. श्रीगिरि ऋषिभाषित का सैतीसवां अध्ययन श्रीगिरि के उपदेशों से संबंधित है। इन्हें ब्राह्मण परिव्राजक कहा गया है। ऋषिभाषित के अतिरिक्त इनका उल्लेख अन्य जैन अर्वाचीन प्राचीन साहित्य में कही भी उपलब्ध नहीं होता है। बौद्ध और वैदिक परंपरा भी इनके संबंध में मौन है। इसलिए इनके जीवन और व्यक्तित्त्व के संबंध में हमें कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, मात्र उनका उपदेश ही हमारे लिए एक विकल्प है। (1) (2) श्रीगिरि के उपदेशों में सृष्टि संबंधी तीन अवधारणाएँ उपलब्ध होती है । १६४ प्रथम अवधारणा के अनुसार सर्वप्रथम सृष्टि पर जल ही था, फिर उसमें से अण्डे का प्रस्फुटन हुआ और सृष्टि उत्पन्न हुई। किन्तु श्रीगिरि इस मान्यता को निरस्त कर देते हैं । १६५ दूसरी अवधारणानुसार सृष्टि माया से उद्भुत मानी गई है । १६६ किन्तु श्री गिरि इससे भी सहमत नहीं है। (3) तीसरी अवधारणानुसार सृष्टि शाश्वत है। इसकी पुष्टि करते हुए वे कहते हैं कि विश्व नहीं था, ऐसा नहीं है, विश्व नहीं है और न ही रहेगा ऐसा भी नहीं है । ९६७ इसका तात्पर्य यह है कि सृष्टि शाश्वत एवं अनंत है। परंतु यह स्मरणीय है कि यहाँ शाश्वतता से श्रीगिरि का तात्पर्य कूटस्थ नित्यता से कदापि नहीं है। वस्तुतः यही अवधारणा पार्श्व की भी थी, जिसका उल्लेख भगवती एवं ऋषिभाषित में हुआ है । १६८ महावीर भी इसी विचारधारा के समर्थक हैं। 163. " जैन तत्त्व प्रकाश" पृ. 97 (पूज्य. अमोलक ऋषि) 164. 'इसिभासियाई' 37 / 1, 2, 3 गद्यभाग 165. एत्थ अण्डे संतत्ते, एत्थ लोए संभूते, एत्थ सासासे, इयं णे वरुण-विहाणे । 16 166. 'मायातु तु प्रकृतिं विद्यात मायिनं तु महेश्वरम् " 167. ण वि माया, ण कदाति, णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य। 168. (अ) भगवतीसूत्र 5/9 (ब) ' इसि भासियाई' 37/3 गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only -' इसि भासियाई 37/1 - श्वेताश्वतर उपनिषद् 4 / 10 - वही 'इसिभासियाई' 37 / 1 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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