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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन .61 ऋषिभषित में ऋषिगिरि सहनशीलता का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई मूर्ख परोक्ष में निंदा करें तो यह समझना कि यह कम से कम प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं कर रहा है।१५३ इसी प्रकार कोई शरीर को चोंट पहुँचाए तो यह विचार करें कि यह मेरे प्राणों को तो नाश नहीं कर रहा है।१५४ आगे इसी अध्याय में भिक्षु को निर्देश देते हुए कहा गया है कि वह जितेन्द्रिय, उपसर्ग रहित जीवन यापन करें।१५५ ऋषिभाषित के उपदेश की तुलना पालि साहित्य में बुद्ध और एक भिक्षु के बीच हुए संवाद से की जा सकती है। उसमें बुद्ध भिक्षु से प्रश्न करते हैं कि यदि तुम्हारी कोई आलोचना, निंदा करें तो तुम्हारे मन में क्या विचार आयेगा? प्रत्युन्तर में भिक्षु इतना ही कहता है कि मात्र आलोचना ही तो कर रहा है, मार तो नहीं रहा है। यद्यपि पालिसाहित्य और ऋषिभाषित की विषयवस्तु और भाव में कोई अंतर नहीं है, मात्र फर्क इतना है कि ऋषिभाषित में यह उपदेश के रूप में व्यक्त हुआ है, जबकि पालि साहित्य में बुद्ध के वार्तालाप के रूप में समक्ष आता है। ३५. (उद्दालक) उद्दालअ ऋषिभाषित का पैतीसवां अध्ययन उद्दालक और उनके उपदेशों से संबंधित है। जैन परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त अन्य साहित्य में इनके जीवन चरित्र के संबंध में काई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। बौद्ध परंपरा के जातक के अनुसार उद्दालक दासी से उत्पन्न पुरोहित पुत्र थे।२५६ इनके पिता बनारस के राजा के पुरोहित थे। उसमें यह भी कहा गया है कि इन्होंने तक्षशिला में उच्चशिक्षा प्राप्त की और सन्यासियों के आचार्य बन गए, किन्तु यह आचार्यत्व अधिक समय तक गुप्त न रह सका, क्योंकि एक पुरोहित ने इनकी यथार्थता से अवगत होकर इन्हें सन्यासी वेश छोड़ने के लिए विवश किया और इन्हें अपने अधिकार में पुरोहित बनाकर रखा। जहाँ तक वैदिक परंपरा का प्रश्न है इन्हें अपने पिता अरुण भद्रवासी, पतंचलकाप्य का शिष्य कहा गया है। इनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्योपनिषद आदि में हुआ है।५७ अरुण औपवेशिक गौतक के पुत्र होने के नाते इन्हें उद्दालक आरुणि भी कहा जाता है। -वही 34/1गद्यभाग -इसिभासियाई 34/4 गद्यभाग -वही 34/6 153. बाले खलु पण्डित. . . . . .णो पच्चक्खं। 154. बाले य पण्डियं.....णोजीवितातो ववरोवेति। 155. पंच महव्वयजुत्ते, अकसाए जितिन्दिए। सेहु दंते सुहं सुयति, णिरुवसग्गे य जीवति।। 156. (अ) जातक सं. 487 (a) Dictionary of pali proper Names, Vol.I, P.389 157. देखें-वैदिक कोश, पृ. 56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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