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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 147 स्वच्छन्दता की स्थिति में चित्त वृत्ति का समत्व नहीं रहता।"४३ इस आधार पर यह फलित होता है कि यद्यपि गर्दभाली साधना के क्षेत्र में ध्यान को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, फिर भी ध्यान साधना के लिए वे संयम के महत्त्व को भी स्वीकार करते हैं। क्योंकि असंयमी के लिए ध्यान साधना दुष्कर है। २३. रामपुत्त का चतुर्विध साधना मार्ग रामपुत्त श्रमण परंपरा के विश्रुत ऋषि है। उनके उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों परंपराओं में प्राप्त होते हैं। बौद्ध परंपरा में उन्हें ध्यान की एक विशिष्ठ पद्धति का एक प्रस्तोता माना गया है। किन्तु ऋषिभाषित के आधार पर वे चतुर्विध साधना मार्ग के प्रस्तोता प्रतीत होते हैं। वे कहते हैं कि "मैं ज्ञान से जानकर, दर्शन से देखकर, संयम से संयमित होकर और तप से अष्टविध कर्म रज को विधुणित कर एवं आत्मा को शोधित कर अनादि-अनन्त, दीर्घ और चतुर्गति रूप संसार को पार करके शिव, अचल, अरूज, अक्षय, आव्याबाध तथा पुनर्जन्म से रहित सिद्ध स्थान को प्राप्त करूँगा।" उनके उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे चतुर्विध मोक्ष मार्ग के प्रतिपादक हैं। उनके इस चतुर्विध मोक्ष मार्ग में ज्ञान, दर्शन, संयम और तप को समाविष्ट किया गया है। जैन परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र५ में तथा दर्शन प्राभृत में भी हमें चतुर्विध मोक्ष मार्ग का उल्लेख मिलता है। वहाँ भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। दोनों में अंतर यह है कि जहाँ रामपुत्त संयम शब्द का प्रयोग करते हैं वहाँ उत्तराध्ययन और दर्शनप्राभृत चारित्र शब्द का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि जहाँ उत्तराध्ययन दर्शन को श्रद्धा के अर्थ में ग्रहण करता है, वहाँ रामपुत्त उसे अनुभूति या देखने के अर्थ में ग्रहण करते हैं। दर्शन शब्द का अनुभूति के अर्थ मे प्रयोग प्राचीनतम है और इससे ऋषिभाषित की प्राचीनता भी स्पष्ट हो जाती है। २४. हरिगिरि का कर्म विमुक्ति मार्ग हरिगिरि के अनुसार व्यक्ति अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही बंधन में आता है अतः कर्म विमुक्ति ही व्यक्ति का साध्य है। किन्तु कर्म से विमुक्ति किस प्रकार प्राप्त की जाये, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हरिगिरि कहते हैं कि "प्राणी स्वकीय विचित्र कर्मों से ही बद्ध और मुक्त होता है। जैसे रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति दूसरों के इशारे पर चलता है, उसी प्रकार कर्म रूपी रस्सी से बंधा हुआ व्यक्ति संसार में 43. इसिभासियाई, 23/6 वही, 23/गद्यभाग 45. उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 46. दर्शनप्राभृत, गाथा नं. 22, 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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