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________________ 146 डॉ. सा वी प्रमोदकुमारीजी है। जिस प्रकार जले हुए बीजों में फिर से अंकुर नहीं निकलते, उर्स प्रकार शरीर के जल जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं होती, अतः पुण्य-पाप के ग्रहण की और सुख-दुःख की संभावना भी समाप्त हो जाती है।"३८ इस भौतिकवादी जीवन दृष्टि को भी श्रमण परंपरा के अंतर्गत इसलिए माना जाता है कि ये ऋषि भी देहात्मकवाद के समर्थक होते हुए भी भोगवाद के समर्थक न होकर संन्यास मार्ग के समर्थक थे। वे यह मानते थे कि शरीर का त्याग ही दु:ख विमुक्ति का एकमात्र उपाय है और इसलिए शरीर का पोषण न करके उसके शीघ्रातिशीघ्र त्याग का प्रयत्न करना ही दुःख विमुक्ति का उपाय है। २१. गाथापति पुत्र का ज्ञानमार्ग ___गाथापति पुत्र तरुण ऋषि स्पष्टरूप से ज्ञानमार्गी है। वे कहते हैं कि "मैं अज्ञान का परित्याग करके ज्ञान संपन्न होकर समस्त दु:खों का अंत करके शिव, अचल, शाश्वत, स्थिति को प्राप्त करूँगा।" इस समस्त अध्याय में अज्ञान का परित्याग एवं ज्ञान की साधना पर बल दिया गया हैं। स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि "ज्ञान के योग से ही साधना सफल होती है।''४० अतः तरुण ऋषि ज्ञानमार्गी है; इस तथ्य को सुस्पष्ट रूप से स्वीकार किया जा सकता है। २२. गर्दभाली का ध्यान मार्ग ऋषिभाषित के 22वें अध्याय में हमें मुख्यरूप से ध्यानमार्ग का प्रतिपादन मिलता है। गर्दभाली ऋषि कहते हैं कि "शरीर में जो स्थान मस्तक का है और वृक्ष के लिए जड़ का जो महत्त्व है, उसी प्रकार मुनि धर्म के लिए ध्यान का महत्त्व है।"४१ यद्यपि इस ध्यान साधना के लिए स्पष्टरूप से तथा विस्तार से नारी निंदा करते हैं। संभवतः उनकी दृष्टि में ध्यान या एकाग्रता में सबसे बाधक तत्त्व नारी ही रही होगी। यह किसी सीमा तक सत्य भी है कि नारी पुरुष के चित्त विचलन का कारण बनती है। वे कहते हैं कि "वे गांव और नगर धिक्कार के योग्य है जहाँ महिला शासन करती है। और वे पुरुष भी धिक्कार के योग्य है जो नारी के वशीभूत हैं।"४२ संभवतः गर्दभाली के इस कथन के पीछे यह दृष्टि रही होगी कि ध्यान की साधना के क्षेत्र में स्त्री अर्थात् काम वासना ही सबसे अधिक बाधक होती है। वह चित्त को चंचल बनाती है। ध्यान साधना के संदर्भ में उन्होंने इस तथ्य को भी स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि "जहाँ स्वच्छन्दता होती है वहाँ ध्यान साधना संभव नहीं होती, क्योंकि 38. इसिभासियाई, 20/गद्यभाग-अंत 39. वही, 21 गद्यभाग-प्रारंभ 40. वही, 21/10 41. वही, 22/14 42. वही, 22/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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