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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 171 अवसर आते हैं जब अज्ञानी जनों द्वारा व्यक्ति को अनेक प्रकार के कष्ट दिये जाते हैं। उन सभी कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना ही परिषह जय है। जीवन में ऐसे परीषह कौन से है? उनकी संख्या कितनी है? इस संबंध में ऋषिभाषित में जैन परंपरा के समान विस्तृत विवरण तो उपलब्ध नहीं होता है किन्तु ऋषिभाषित के पैतीसवें उद्दालक नामक अध्ययन में स्पष्ट रूप से बाईस परीषहों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि वहाँ यह नहीं बताया गया है कि ये बाईस परीषह कौन से हैं? मात्र बाईस की संख्या का निर्देश मिलता है।१४० यह ज्ञातव्य है कि जैन परंपरा में न केवल बाईस परीषहों का निर्देश हुआ है अपितु उसमें यह भी बताया गया है कि ये बाईस परीषह कौन-कौन से हैं? इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र के द्वितीय अध्याय में मिलता है, जो निम्नानुसार है।१४१ (१) क्षुधा परीषह बहुत भूख लगने पर भी मनोबल से युक्त तपस्वी भिक्षु उसे सहन करें और नियम विरूद्ध आहार न करें। (२) पिपासा परीषह (तृषा परिषह) संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित्त जल का सेवन नहीं करें। (३) शीत परीषह विरक्त और अनासक्त मुनि शीत के कष्ट को समभावपूर्वक सहन करें। (४) उष्ण परीषह ग्रीष्म ऋतु में सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी ठण्डक आदि की आकांक्षा न करें। (५) दंश-मशक-परीषह डाँस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव रखे। (६) अचेल परीषह वस्त्रों के अतिजीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक हो जाउँगा, ऐसा मुनि न सोंचे। अचेलता को समभाव पूर्वक सहन करें। 140. इसिभासियाई, 35/19 141. उत्तराध्ययन सत्र,2/गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only w www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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