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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
181 लगते हैं। चार वर्णों की कल्पना परमपुरुष के चार अंगों के रूप में की गई हैं उसमें कहा गया है कि ब्राह्मण उसका मुख है, क्षत्रिय उसकी भुजाएँ है, वैश्य उसका पेट है और शुद्र उसके पैर है। कुछ इसे इस प्रकार भी व्याख्यायित करते हैं कि उसे मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और चरण से शुद्र उत्पन्न हुए। हमारी दृष्टि में यह प्रश्न उत्पत्ति का नही है, अपितु समाजव्यवस्था के अंतर्गत उनके स्थान पर कार्य के निर्धारण का है। वस्तुतः समाज पुरुष के ही ये चार अंग कहे जा सकते हैं। समाज का विचारक वर्ग ब्राह्मण, संरक्षक वर्ग क्षत्रिय, पोषक वर्ग वैश्य और समाजसेवी ही शूद्र नाम से अभिहित हुए हैं।
जहाँ तक श्रमण परंपराओं का प्रश्न है उनमें पहले आर्य और अनार्य ऐसे ही दो प्रकार के वर्ग मिलते हैं। ऋषिभाषित में भी हमें आर्यायण नामक उन्नीसवें अध्याय में हमे आर्य और अनार्य की यह चर्चा उपलब्ध होती है उसमें कहा गया है कि अनार्य विचार और अनार्य आचार तथा अनार्य मित्रों का परित्याग कर, आर्यत्व को प्राप्त करने के लिए समुपस्थित हो।१२ क्योंकि आर्यों का ज्ञान श्रेष्ठ होता है, आर्य के दर्शन श्रेष्ठ होता है। और आर्य का चरित्र श्रेष्ठ होता है; इसलिए आर्यत्व का ही सेवन करना चाहिये।१३ इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित प्रथमः समाज को आर्य और अनार्य ऐसे दो भागों में विभाजित करता है। किन्तु आगे चलकर उसमें भारतीय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के भी संकेत मिलने लगते हैं। यह स्पष्ट है कि भारत में ऋषिभाषित के काल तक वर्णव्यवस्था की अवधारण सुस्पष्ट हो चुकी थी। वर्णव्यवस्था के संदर्भ में हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि प्रारंभ में यह वर्णव्यवस्था लचीली थी और कर्मों के आधार पर अथवा व्यक्ति के चरित्र और संस्कार के आधार पर वर्ण परिवर्तन संभव था, किन्तु आगे चलकर पुरोहित वर्ग ने, जो ब्राह्मण था अपने अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए इसे वंशानुगत बनाने का प्रयत्न किया, ताकि उनके संतानों का, पुरोहित्य कर्म का अधिाकर सुरक्षित रहे। श्रमण परंपराओं ने वर्ण व्यवस्था की इस अवधारणा को स्वीकार तो किया किन्तु वे इस बात से सहमत नहीं हुए कि यह वर्ण व्यवस्था जन्मना हैं। उन्होंने वर्ण व्यवसायी को कर्मणा ही माना और यह माना कि व्यक्ति के कर्म और आचरण के आधार पर यह वर्ण परिवर्तन संभव है। जैन परंपरा के प्राचीनतम ग्रंथ उत्तराध्ययन, जो कि किसी समय ऋषिभाषित के साथ ही प्रश्न व्याकरण का एक अंग माना जाता था, में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र होता है।४ वर्णव्यवस्था की यह कर्मणा अवधारणा न केवल जैन और बौद्ध परंपराओं में, अपितु भगवद्गीता में भी पायी जाती है, उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गुण और कर्म के आधार पर ही इन चारों वर्षों को सृष्ट किया गया है।५
12. इसिभासियाई, 19/1 13. इसिभासियाई, 19/5
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