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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी जहाँ तक ऋषिभाषित का प्रश्न है, उसमें स्पष्ट रूप से चारों वर्गों के उल्लेख हमें मिलते हैं। उसमें न केवल इन चारों वर्गों का उल्लेख है, अपितु यह भी कहा गया है कि अपने वर्ग के निर्धारित कर्म का परित्याग करके अन्य वर्ण के कार्य करना उचित नहीं है। मातंग नामक ऋषि कहते हैं कि यदि क्षत्रिय और वणिक यज्ञ याग आदि कर्म करें और ब्राह्मण शस्त्रजीवी हो, तो यह ऐसा ही होगा जैसे विपरीत दिशाओं से आते हुए अन्ध पुरुष आपस में ही टकरा जाते है।१६ ब्राह्मणों के लिए स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तुम ब्राह्मण (माहण अर्थात हिंसा नहीं करने वाले) होकर भी युद्ध की शिक्षा क्यों ग्रहण करते हो? रथ और धनुषधारी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं हो सकता? इससे स्पष्ट रूप से यह फलित होता है कि ऋषिभाषित में भी गीता के समान ही अपने-अपने वर्ण के लिए निश्चित कर्म को करने की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण और स्वभाव के आधार पर निर्धारित वर्ण का कर्म करें यह बात ऋषिभाषितकार को मान्य रही है।
इस प्रकार ऋषिभाषित कर्मणा आधार पर वर्णव्यवस्था को मान्य करते हुए भी न तो वर्गों में किसी वर्ण में श्रेष्ठ और किसी वर्ण के अधम होने का उल्लेख करता है और न इस बात का ही समर्थन करता है कि आध्यात्मिक और नैतिक विकास की यात्रा किसी एक वर्ण विशेष का अधिकार है। उसके अनुसार आध्यात्मिक विकास का पथ सभी वर्गों के लिए समान रूप से खुला हुआ है।, जो भी अपनी कषायों को क्षीण करेगा और विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति दया या कारुण्य भाव का धारक होगा वह व्यक्ति चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शुद्र हो वह आत्मविशुद्धि को प्राप्त करेगा और पाप विरत होकर निर्वाण का अधिकारी बनेगा। इस प्रकार ऋषिभाषित आध्यात्मिक विशुद्धि और निर्वाण को प्राप्त करने का अधिकार किसी वर्ण विशेष के लिए सुरक्षित नहीं रखता है, अपितु यह मानता है कि जो भी व्यक्ति अध्यात्म की साधना करेगा वह निर्वाण का अधिकारी होगा। संक्षेप में ऋषिभाषित में वर्णव्यवस्था की अवधारणा मान्य है, किंतु यह व्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा ही मानी गई है। वह यह मान्य करता है कि प्रत्येक वर्ण को अपना कार्य करना चाहिये, किन्तु इससे कोई ऊँच या नीच नहीं होता हैं आध्यात्मिक साधना और निर्वाण प्राप्ति का अधिकार सभी को समान रूप से उपलब्ध है, उसमें यह भी माना गया है कि व्यक्ति ब्राह्मण जन्म से नहीं, अपने नैतिक चरित्र से बनता है जो अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है, शीलप्रेक्षी है, सत्यप्रेक्षी है तथा जो समस्त प्राणियों के प्रति कल्याणशील है और जिसकी आत्मा विशुद्ध है उसे ब्राह्मण ही कहा जाना 14. उत्तराध्ययन सूत्र, 25/33 15. देखे, जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 181, 82 16. इसिभासियाई, 26/2 17. वही, 26/4 18. देखें, जैन बौद्ध गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ.
19. इसिभासियाई,85/15 Jain Education International
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