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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी ऋषिभाषित में हमें पारिवारिक जीवन के प्रति पारस्परिक दायित्वों की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि पारिवारिक संबंधों और दायित्वों की विस्तृत चर्चा न होने का कारण मूलतः उसका सन्यास प्रधान या वैराग्य प्रधान दृष्टिकोण ही है। क्योंकि निवृत्तिमार्गी परंपरा ने सदैव ही पारिवारिक, जीवन को आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में एक बाधा ही माना था। उसमें पारिवारिक संबंधों के प्रति विश्वसनीयता का भाव परिलक्षित न होकर अविश्वसनीयता का ही भाव दृष्टिगोचर होता है। इस संदर्भ में ऋषिभाषित के तेतलीपुत्र नामक अध्ययन का निम्न संदर्भ द्रष्टव्य है। वे कहते हे। कि श्रमण ब्राह्मण कहते हैं कि श्रद्धा (विश्वास) करना चाहिये किन्तु मैं कहता हूँ कि श्रद्धा विश्वास नहीं करना चाहिये। 'मैं' सपरिजन होकर भी अपरिजन हूँ, मेरे इन वचनों पर कौन विश्वास करेगा? मैं पुत्र सहित होकर भी पुत्ररहित हूँ, मेरे इस कथन को कौन मानेगा? मैं समित्र होकर भी मित्र रहित हूँ, इस बात पर कौन विश्वास करेगा? कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि मुझे अपने स्वजन और परिजनों से विराग हो गया है? कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि जाति, कुल, रूप, विनय आदि से युक्त मेरी पत्नी मुझसे विमुख हो गई है। तेतलीपुत्र के उपयुक्त वचन स्पष्ट रूप से इस बात के सूचक है कि निर्वाण मार्ग के अभिलाषी के लिए ये समस्त पारिवारिक संबंध और पारिवारिक दायित्व निरर्थक बन जाते हैं। एक अनासक्त वीतराग पुरुष इन समग्र संबंधों से ऊपर उठ जाता है। तेतलीपुत्र की दृष्टि में ये समस्त पारिवारिक संबंध विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि ये सभी स्वार्थों पर आधारित होते हैं। जहाँ स्वार्थों की पूर्ति नहीं होती है। वैराग्यवादी जीवन दृष्टि के लिए पारिवारिक संबंध अथवा सामाजिक संबंध यथार्थ नहीं है, अपितु वे आरोपित है और जो आरोपित है वे विश्वसनीय नहीं है।
ऋषिभाषित की पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति निषेधात्मक जीवन दृष्टि आलोचना का विषय हो सकती है। यह कहा जा सकता है कि ऋषिभाषित पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों की अवेहलना करता है। निश्चय ही हम इस तथ्य से सहमत है कि उसमें पारिवारिक संबंधों और दायित्वों की उपेक्षा हुई है, किन्तु उसका मूल कारण उसकी वैराग्यवादी जीवन-दृष्टि है। वैराग्यवाद ऋषिभाषित के सभी ऋषियों का एक सामान्य जीवन दर्शन है। यह एक अलग प्रश्न है कि यह वैराग्यवाद उचित है या अनुचित है। यदि ऋषिभाषित संन्यासीमार्गी जीवन-दृष्टि को लेकर चल रहा है तो उसमें पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों की यह उपेक्षा स्वाभाविक ही है। यह उपेक्षा स्वाभाविक ही है। ऋषिभाषित और वर्ण व्यवस्था
वर्ण-व्यवस्था भारतीय सामाजिक चिन्तन की एक अपरिहार्य अवधारणा रही है। वैदिक साहित्य में हमें वर्णव्यवस्था संबंधी उल्लेख प्राचीन काल से ही मिलने
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