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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
179 अथवा उनके जुड़ी हुई परंपरा को नारी निंद मान लेना भ्रान्तिजनक ही होगा। यहाँ किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पूर्व हमें श्रमण परंपरा की जीवन दृष्टि को समझना होगा। यह स्पष्ट है कि श्रमण परंपरा वैराग्य प्रधान है, उसमें जो नारी निंदा के चित्र मिलते हैं, उनका प्रयोजन नारी के व्यक्तित्व को गिराना नहीं है, अपितु पुरुष को नारी के प्रति आकर्षित होकर वासना में लिप्त होने से बचाना है। वस्तुतः नारी निंदा के ये समस्त चित्रण पुरुष को नारी से विमुख करने के लिए या उसमें वैराग्य भाव जागृत करने के लिए ही है। क्योंकि यदि उसके सम्मुख नारी जीवन के विकृत पक्ष को उभारा नहीं जायेगा तो उसकी नारी के प्रति आसक्ति नहीं टूटेगी। यहाँ निंदा, निंदा के लिए नहीं किन्तु वैराग्य के लिए हैं। श्रमण परंपरा में नारी को समुचित गौरव प्रदान करने का ही प्रयत्न किया गया है। यही एक ऐसी परंपरा है जो नारी को पुरुष से स्वतंत्र होकर जीवन जीना सिखाती है और स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित करती है कि नारी की आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकती है। यही एक ऐसी परंपरा है, जिसमें नारी पुरुष को प्रबोधित कर उसे सन्मार्ग पर लाती है। जैन श्रमण परंपरा में ब्राहती, सुंदरी और राजीमति आदि ऐसी अनेक नारियों के उल्लेख है जो पुरुषों को प्रबोधित करके सन्मार्ग की दिशा में ले गईं। अत: ऋषिभाषित में नारी निंदा के कुछ चित्रणों को देखकर यह नहीं माना जा सकता कि वह नारी को कोई महत्त्व और मूल्य ही नहीं देता है। ऋषिभाषित और पारिवारिक संबंध
ऋषिभाषित में हमें अनेक प्रकार के पारिवारिक संबंधों के उल्लेख मिलते हैं जैसे भाई-बहन, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, पति-पत्नी, माँ-पुत्र, माँ-पुत्री, ऋषिभाषित इन विविध प्रकार के पारिवारिक संबंधों का निर्देश तो करता है, किन्तु उसकी दृष्टि में ये सभी पारिवारिक संबंध व्यक्ति के लिए दुःख का कारण माने गए हैं। वह यह मानता है कि इन पारिवारिक संबंधों के प्रति रागभाव व्यक्ति को बंधन में बांधता है
और उनके प्रति घटित होने वाले दु:ख संकट, व्यक्ति के अपने दुःख संकट बन जाते हैं। ऋषिभाषित के 'महाकाश्यप' नामक अध्याय में भी कहा गया है कि "भाई के मरण से भगिनि के मरण से, पुत्र के मरण से, पुत्री के मरण से, भार्या के मरण से, अथवा अन्य स्वजन मित्र, बन्धु-बांधवों के मरण से, उनकी दरिद्रता से, उनके भोजनाभाव से, दुःखग्रस्त होता है, वह उनके वियोग, अपमान, निन्दा, पराजय आदि दु:खों से स्वयं भी दुखित होता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के लेखक की दृष्टि में व्यक्ति एक ओर इन्हीं पारिवारिक संबंधों के कारण परिवार एवं समाज से बंधा हुआ है, तो दूसरी ओर ये सभी पारिवारिक संबंध व्यक्ति के दःख और पीडा के कारण भी है। 8. देखे, जैन धर्म में नारी की भूमिका, डॉ. सागरमल जैन पृ. 9. इसिभासियाई, 7/गद्यभाग
10. इसिभासियाई, 1/गद्यभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only
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