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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी १८. वारिषेण कृष्ण
___ऋषिभाषित का अठारहवां अध्ययन वारिषेण कृष्ण (वारिसवकण्ह) के उपदेशों से संबंधित है। वारिषेण का उल्लेख ऋषिभाषित, स्थानांग एवं समवायांग में हुआ है। समवायांग चार जिनेन्द्र प्रतिमाओं के साथ चंद्रानन और वारिषेण का भी उल्लेख करता है और उसमें यह भी कहा गया है कि ऐरावत क्षेत्र के चंद्रानन प्रथम और वारिषेण अंतिम तीर्थकर होंगे। स्थानांग काश्यप गोत्र की एक शाखा 'वारिसकण्हा' का भी उल्लेख करता है।
___बौद्ध परंपरा में दीघनिकाय के अम्बट्ठसुत्त में कृष्ण ऋषि का उल्लेख उपलब्ध होता है।
जहाँ तक वैदिक परंपरा का प्रश्न है महाभारत में कृष्ण को वाष्णय कहा गया है। संभवतः इनका वार्ष्णेय नाम वृष्णि वंश का द्योतक है।
वारिषेण के उपदेश का मुख्य प्रतिपाद्य विषय पाप से निवृत्ति है। इसमें स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जैसे शकुनी (पक्षी) अपनी तेज चोंच से फल का छेदन-भेदन कर देता है, शत्रु-राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर देता है वैसे ही विशुद्धात्मा सर्वपापों का नाश कर जल कमलवत रहता है।८ १९. आरियायण
ऋषिभाषित के उन्नीसवें अध्ययन में आरियायण के उपदेश संकलित हैं। इनके व्यक्तित्व और जीवन के संबंध में बौद्ध और वैदिक परंपराएँ कुछ भी जानकारी प्रस्तुत नहीं करती है। जैन परंपरा में भी मात्र ऋषिभाषित में ही इनका उल्लेख हुआ है। इसमें भी 'आयरियायण' मात्र उपदेशक के रूप में ही हमारे समक्ष आते हैं।
ऋषिभाषित में आर्यायण आर्य-अनार्य का प्रतिपादन करते हुए 'आरियायण' आर्यत्व को प्राप्त करने का निर्देश देते हैं। वे इस अध्याय में आर्यत्व की गरिमा का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि पूर्व में केवल आर्य ही थे इसलिए अनार्यत्व का परित्याग करके श्रेष्ठ या आर्यज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करनी चाहिये।
95- (अ) स्थानांगसूत्र 143
(ब) समवायांगसूत्र 169 96- दीर्घनिकाय अम्बट्ठसुत्त 97- महाभारत, भीष्मपर्व 2736 98- सकुणी संकुप्पघातं च.......विभागम्मि विहावए। 99- (अ) वज्जेज्जऽणारियं भावं, कम्मं चेव अणारियां
अणारियाणि य मित्ताणि, आयरियत्तमुवट्ठिए।। (ब) आरियं णाणं साहू, आरियं साहू दंसण।
आरियं चरणं साहू, तम्हा सेवय आरिय।।
-'इसिभासियाई' 18/2
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-'इसिभासियाई', 19/1, 6
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