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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी बौद्ध परंपरा के वज्जियपुत्त में समानता परिलक्षित होती है। किन्तु जैन परंपरा की अपेक्षा बौद्ध परंपरा में इनकी स्थिति अधिक सुदृढ़ है। बौद्ध धर्म में पृथक सम्प्रदाय का होना यह प्रमाणित करता है कि वे बौद्ध श्रमण ही थे। ऋषिभाषित के वज्जियपुत्त नामक अध्ययन में जिस कर्म सन्ततिवाद की चर्चा हुई है उसकी समानता उत्तराध्ययन के तीसवें अध्ययन में देखी जा सकती है। ३. असित देवल
___ असित देवल का ऋषिभाषित के ऋषियों में तीसरा स्थान है। इनका उल्लेख श्रमण और ब्राह्मण धारा दोनों परंपराओं में हुआ है। जैन परंपरा में इनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी हुआ है। किन्तु शीलांक ने अपनी सूत्रकृतांग की टीका में "असिते दविले" के आधार पर असित और दविल ऐसे दो व्यक्ति होने की संभावना व्यक्त की है। किन्तु 13वीं 14वीं शताब्दी में विरचित ऋषिमण्डल की वृत्ति से यह संभावना समाप्त हो जाती है, क्योंकि उसमें इनके पूरे जीवन का वर्णन है। उसमें यह बताया गया है कि ये अपनी पुत्री अर्धशंकासा के प्रति कामवासना से आकर्षित हुए, किन्तु उसी समय अंतर जागरण से विषय वासना से निवृत्त हो गए थे।
बौद्ध परंपरा में सुत्तनिपात में असितदेवल एक ऋषि के रूप में उल्लिखित हुए हैं। उसी प्रकार मज्झिमनिकाय के आसलायनसूत्र में भी इनका उल्लेख हुआ है। उसमें यह बताया गया है कि 'ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है' इस अवधारणा का असितदेवल ने विरोध किया था इसलिए 7 ब्राह्मण विद्वानों ने इन्हें श्राप दिया था, किन्तु उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और अन्तत्तोगत्वा ब्रह्मर्षि इनके अनुयायी हुए। उसी प्रकार 'महावंस' में असितदेवल का बोधिसत्व के रूप में उल्लेख हुआ है, किन्तु इन्द्रिय जातक में कालदेवल के रूप में इनका उल्लेख हुआ है और इसमें इन्हें नारद का बड़ा भाई कहा गया है।
हिन्दू परंपरा में महाभारत के आदिपर्व, सत्तापर्व, शल्यपर्व, शांतिपर्व और अनुशासन पर्व में असित देवल का उल्लेख हुआ है। शल्यपर्व में असित देवल को एक गृहस्थ रूप में साधना करता हुआ माना गया है। इसी अध्याय में असित और जौगीशव्य की चर्चा का भी उल्लेख हुआ है तथा यह कहा गया है कि जैगीशव्य के प्रभाव से संन्यास धर्म का पालन करने लगे थे। इसके अतिरिक्त गीता, माठरवृत्ति,
39. सूत्रकृतांगसूत्र1/1/3/42 40. ऋषिमंडल वृत्ति 41. (अ) महावंश 11, 785
(ब) इन्द्रिय जातक, पृ. 463 (गीता प्रेस संस्करण)
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