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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन है और न पालित्रिपिटक में। 'शुबिंग' ने इसके शब्द रूपों और शब्द योजना की समीक्षा करके यही माना है कि अपेक्षाकृत रूप से यह एक प्राचीन ग्रंथ है। ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आत्म' शब्द का प्रयोग हुआ है जो कि प्राचीन है जबकि इससे परवर्ती जैन आगम साहित्य के ग्रंथों में आचारांग को छोड़कर अन्यत्र आत्म शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता है। इसके स्थान पर उनमें 'अत्ता' 'अप्पा' 'आता' 'आदा' आदि शब्द-रूप प्रयुक्त हुए हैं, जो कि परवर्ती है। जहाँ ऋषिभाषित में 'तश्रुति' की प्रधानता है वहाँ अन्य आगम साहित्य में इसके लोप को तथा 'य' श्रुति की प्रवृत्ति पायी जाती है, अतः भाषा की दृष्टि से भी ऋषिभाषित आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर अन्य आगम साहित्य की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है।
रूपकों की दृष्टि से विचार करने पर भी हम यह पाते हैं कि 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' तथा 'पालिसुत्तनिपात' के अनेक रूपक और गाथाओं के चरण ऋषिभाषित में पाये जाते हैं। इनके विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ये रूपक और गाथाओं के चरण ऋषिभाषित से ही इन जैन और बौद्ध ग्रंथों में गए हैं क्योकि जहाँ ऋषिभाषित में ये रूपक सामान्य रूप से प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ उत्तराध्ययन, सुत्तनिपात आदि में ये रूपक या तो बुद्ध के साथ जोड़े गए हैं या किसी कथानक के साथ जोड़कर प्रस्तुत किए गए हैं।१ ।
यदि हम दार्शनिक विकास की दृष्टि से भी विचार करें तो हमें ऋषिभाषित जैन और बोद्ध धर्म-दर्शन संबंधी अन्य ग्रंथें की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता हैं क्योंकि इसमें 'पैचास्तिकाय', 'अष्टविध कर्म', आत्मा और पुद्गल की गति आदि के संदर्भ में जो सिद्धान्त प्रस्त किये गये हैं वे अपने प्राथमिक रूप में ही है। ऋषिभाषित में बौद्ध परंपरा के वात्सीयपुत्र, महाकाश्यप, सारिपुत्त आदि के जो सिद्धांत मिलते हैं उनमें मात्र सन्ततिवाद और क्षणिकवाद का उल्लेख है। परवर्ती बौद्ध सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद आदि के उल्लेख भी इसमें नहीं हैं। 10. See- Isibhasyaim page 8-9 Introduction by Walther Schubring, L.D.Institute,
Ahemadabad, 9, 1974 11. अहं च भोयरायस्स तं च सि अन्धगवण्हिणो। मा कुले गन्धण होमो, संजमं निहुओ चर।।
-उत्तराध्ययन 22/44 पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउं दुरासयं। नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अंगधणे।।
-दशवैकालिक 2/6 अन्यले कुल जातो, जधा नागो महाविसो। मुंचिता सविसं भूतो, पियन्तो जाती लाघवं।।
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