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________________ 22 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में किया है। उनके अनुसार- याज्ञवल्क्य, बाहुक अरुण, महाशालपुत्र, और उद्दालक, स्पष्ट रूप से औपनिषदिक परंपरा के ऋषि हैं। क्योंकि इनके नामों का निर्देश उपनिषदों में हुआ है। इनके अतिरिक्त नारद असितदेवल आंगिरस विदुर और भारद्वाज के उल्लेख भी हमें औपनिषदिक साहित्य में मिल जाते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त दस ऋषि स्पष्टतया औपनिषदिक परंपरा के हैं। इसके अतिरिक्त पिंग ऋषिगिरि और श्रीगिरि के नामों के साथ ब्राह्मण परिव्राजक ऐसा स्पष्ट विशेषण हुआ है । अतः ये तीनों भी ब्राह्मण परंपरा से ही संबंधित प्रतीत होते हैं। इनके अतिरिक्त अम्बा को भी परिव्राजक कहा गया है, जैन कथा स्रोतों से हमें यह ज्ञात होता है कि अम्बड पहले परिव्राजक था बाद में वह निर्ग्रन्थ परंपरा का अनुयायी बन गया, अतः उसे इन दोनों परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ मानना होगा। 'अम्बड' नामक अध्ययन में ही यौगन्धरायण का भी उल्लेख हुआ है। ऋषिभाषित में अम्बड से इनका संवाद उल्लिखित है। अतः ये भी ब्राह्मण परंपरा के ही ऋषि हैं। यद्यपि मधुरायण, आर्यायण और नारायण (तारायण) के नामों के साथ कोई विशिष्ट विशेषण नहीं लगा हुआ है, मात्र इन्हें अर्हन ऋषि कहा गया है। किन्तु हमारी दृष्टि में ये भी ब्राह्मण परंपरा से ही संबंधित प्रतीत होते हैं। नारायण और मधुरायण का उल्लेख ब्राह्मण परंपरा में कहीं नहीं हुआ हैं। यद्यपि हमें उसका संदर्भ प्राप्त नहीं हो सका है। शुबिंग " एवं प्रो. सी. एस. उपासक'" ने महाकाश्यप सारिपुत्त और वात्सीय पुत्र को स्पष्टतया बौद्ध परंपरा का बताया है। उनकी यह मान्यता समुचित भी है। अन्य कुछ विचारकों की दृष्टि में इंद्रनाग भी बौद्ध परंपरा से संबंधित है। इस संबंध में उनका आधार क्या है यह हमें ज्ञात नहीं होता है, पुनः उनके उपदेशों के आधार पर यह निर्धारण करना कठिन है। कि वे किस परंपरा के हैं। इसी प्रकार वर्धमान और पार्श्व को हम स्पष्टरूप से निर्ग्रन्थ परंपरा के साथ जोड़ सकते हैं। आर्द्रक का उल्लेख भी जैन परंपरा में स्पष्टतया मिलता है, अत: उन्हें भी निर्ग्रन्थ परंपरा का ऋषि मानने में कोई आपत्ति नहीं है । १७ जहाँ तक मंखलिपुत्र का प्रश्न है, वे स्पष्टरूप से आजीविक परंपरा के हैं। इसी प्रकार संजय, जिनका उल्लेख संजयवेल्लट्ठीपुत्त के रूप में बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों के रूप में हुआ हैं, को भी हम स्वतंत्र श्रमण परंपरा का ऋषि मान सकते हैं। यही स्थिति रामपुत्त की भी है। इनके अतिरिक्त पुष्पशालपुत्त, केतलीपुत्त, गाथापति पुत्त, हरिगिरि, मातंग और वायु के नाम के साथ किसी स्पष्ट संकेत के अभाव में किसी भी परंपरा 14. I.B.K.D., p.3-7 15. I.B.K.D., p.3-7 16. Aspects of Jaionology, Edited by Prof. M.A. Dhaky and Dr. Sagarmal Jain, page G.S. Upasak Isibhasyaim and Buddhist Text Page. 17. 'इसिभासियाई' भूमिका- डॉ. सागरमल जैन, पृ. 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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