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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
बसंतपुर का रहने वाला बताया गया है और उनके संगीतज्ञ होने का भी उल्लेख हुआ है । ४९ आचारांग की टीका में भी इनका उल्लेख हुआ है।" ऋषिभाषित के पुष्पशाल की समानता गोबर ग्राम के पुष्पशाल से की जा सकती है। क्योंकि उन्हें वहाँ सेवाधर्म का प्रवर्त्तक माना गया है और ऋषिभाषित के पुष्पशाल को विनय धर्म का प्रवक्ता कहा गया है।
बौद्ध परंपरा में पुष्पशाल का पुस्सथेर (पुष्पस्थविर) के रूप में उल्लेख हुआ है । थेरगाथा की अट्ठकथा में भी इनका उल्लेख हुआ है। पालि साहित्य में इनका उल्लेख सदाचार के प्रति बल देने वाले के रूप में हुआ है। ऋषिभाषित में वर्णित पुष्पशाल का उपदेश मुख्यरूप से विनय धर्म पर प्रकाश डालता है। वे कहते हैं कि नमन् करने वाला अर्थात् विनयवान सदा शांति या समत्व और आगमिक ज्ञान में तल्लीन रहता है। वस्तुतः काषायिक भावों से रहित आत्मा समस्त पर्यायों का ज्ञाता • होता है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि हिंसा, असत्य, मैथुन, अदत्तादान और परिग्रह से दूर रहने का संकेत करते हैं।
ऋषिभाषित में वर्णित पुष्पशाल के उपदेशों की तुलना बौद्ध साहित्य में वर्णित उपदेशों से करने पर दोनों में समानता परिलक्षित होती है। पालि साहित्य के पुष्पशाल सिद्धान्तानुकूल सदाचार पर बल देते हैं, तो ऋषिभाषित के पुष्पशाल विनय - धर्म पर अधिक बल देते हुए प्रतीत होते हैं।
६. वल्कलचीरी
ऋषिभाषित के ऋषियों की श्रृंखला में वल्कलचीरी का षष्ठम स्थान है। इस अध्ययन में इनके उपदेश वर्णित है । वल्कलचीरी का उल्लेख जैन और बौद्ध परंपरा में उपलब्ध होता है, किन्तु वैदिक परंपरा में इनका उल्लेख नहीं मिलता हैं । जैन परंपरा में ऋषिभाषित के सिवाय औपपातिक भगवतीसूत्र, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है। आवश्यकचूर्णि में वल्कलचीरी से संबंधित दो कथाएँ मिलती हैं। एक कथा में इनको पोतनपुर का राजकुमार कहा है । उसमें इनके पिता का नाम राजा सोमचंद्र और भाई का नाम प्रसन्नचंद्र बताया गया है । ५१ जैन परंपरानुसार प्रसन्न चंद्र राजर्षि को महावीर का समकालीन माना गया। इस दृष्टि से वल्कलचीरी को भी महावीर का समकालीन कहा जा सकता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इनके पिता दिशापोषक उपासक थे। इन तापसों का उल्लेख औपपातिक सूत्र में भी हुआ
49. (अ) आवश्यक नियुक्ति, पृ. 398
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(ब) आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 529-30 (स) विशेषावश्यक भाष्य, पृ. 787
50. आचारांग शीलांक वृत्ति, पृ. 154 51. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 455-460
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