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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन संकलित हैं। भारत की सभी श्रमण और ब्राह्मण परंपराओं के ऋषियों के वचनों का एक स्थान पर संकलन यदि किसी ग्रंथ में उपलब्ध होता है तो वह 'ऋषिभाषित' ही है। दूसरी विशेषता यह है कि इसमें सभी परंपराओं के ऋषियों को अर्हत् ऋषि जैसे सम्मानपूर्ण विशेषण से संबोधित किया गया है। अतः वर्तमान युग में हम जिस धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म सम्भाव की बात करना चाहते हैं उसका यह एक प्रतिनिधि ग्रंथ कहा जा सकता है। वस्तुतः यह एक ऐसा ग्रंथ है जो वर्तमान संदर्भ में अपनी उपयोगिता को सार्थक कर रहा है। सम्प्रदाय निरपेक्ष तथा सभी परंपराओं को समान महत्त्व देने वाले इस ग्रंथ की महत्ता निर्विवाद है।
मात्र यही नहीं अपनी भाषा शैली की प्राचीनता और विषय वस्तु की प्रामाणिकता की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है। ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी और उसके पहले भारत के सभी परंपराओं के ऋषि-महर्षियों के उपदेशों का प्राकृत भाषा में यही एकमात्र संकलन है। दूसरे शब्दों में कहे तो यह एक ऐसा ग्रंथ रहा है जो इन ऋषियों के उपदेशों को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत करता है। इसके साथ-साथ इस ग्रंथ की प्राचीनता भी इसके महत्त्व को सुस्पष्ट करती है। ग्रंथ में जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं वे सब ईसा पूर्व छठी शताब्दी के पूर्व के हैं। इसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों के उपदेश संकलित हैं जो इसकी प्राचीनता और इसके महत्त्व को प्रस्तुत करते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, अरूण, आरूणी-उद्दालक आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख इसके महत्त्व और मूल्य को स्पष्ट कर देते हैं। ऋषिभाषित का रचना काल
ऋषिभाषित में हमें न तो उसके रचयिता के नाम का उल्लेख प्राप्त होता है और न उसके रचनाकाल का ही कोई उल्लेख मिलता है, किन्तु इस ग्रंथ में जिन ऋषियों के नामों का उल्लेख है उनमें कोई भी ऐसा नहीं है जो ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद हुआ हो, इसलिए इस ग्रंथ की पूर्व कालिक अवधि ईसा पूर्व छठी शताब्दी हो सकती है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम निर्देश 'स्थानांगसूत्र' में मिलता है। स्थानांग का रचनाकाल वीर निर्वाण के लगभग छ: सौ वर्ष पश्चात् माना जाता है, अतः ऋषिभाषित ईसा पूर्व की पाँचवीं शती से ईसा की दूसरी शती के बीच कभी निर्मित हुआ होगा। ऋषिभाषित के रचनाकाल के संदर्भ में डॉ. सागरमल जैन ने ऋषिभाषित की भूमिका में विस्तारपूर्वक चर्चा की। उनके अनुसार "यह ग्रंथ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर संपूर्ण प्राकृत जैन आगम साहित्य एवं पालि त्रिपिटक साहित्य से प्राचीन है। उन्होंने इसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के संदर्भ में मुख्यरूप से भाषागत और विषयवस्तुगत तर्क दिये हैं। वे लिखते हैं कि यह एक सुनिश्चित सत्य है कि यह ग्रंथ जैन धर्म और संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रंथ के अध्ययन से स्पष्ट रूप से यह प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक
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