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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 173 (१७) तृणस्पर्श तृण आदि की शय्या पर सोने से तथा नंगे पैर चलने से तृण या कांटे आदि की वेदना को समभावपूर्वक सहन करें। (१८) मल परीषह __ वस्त्र या शरीर पर धूल आदि के कारण मैल जम जावे तो उद्विग्न न होकर सहन करें। (१९) सत्कार परीषह राजा आदि शासकवर्गीय लोगों द्वारा सम्मान मिलने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखें। मुनि मान-सम्मान की स्पृहा न करें। (२०) प्रज्ञा परीषह भिक्षु के बुद्धिमान होने के कारण लोग आकर उससे विवादादि करें तो भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करें कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था। (२१) अज्ञान परीषह यदि भिक्षु की बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सके तो भी खिन्न नहीं होते हुए अपनी साधना में लगे रहना चाहिये। (२२) दर्शन परीषह अन्य सम्प्रदायों और उनके महन्तों का आडम्बर देखकर यह विचार नहीं करना चाहिये कि देखों इनकी कितनी प्रतिष्ठा हैं और सम्यक् या शुद्ध मार्ग पर चलते हुए भी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है, ऐसा विचार न करें। ऋषिभाषित में वर्णित सच्चे श्रमण का स्वरूप ऋषिभाषित में सच्चे श्रमण का स्वरूप सामान्य रूप से तो अनेक अध्यायों में वर्णित है किन्तु विशेष रूप से उसका विवरण हमें वारत्तक नामक सत्ताइसवें अध्ययन में मिलता है। वारत्तक के अनुसार "सच्चा श्रमण वह है जो गृहस्थ जनों से अधिक संबंध नहीं रखता है, क्योंकि इससे ममत्व भाव की वृद्धि होती है। यह ममत्व भाव जगत की क्षणिकता के चिन्तन स्वरूप श्रमण के लिए दु:ख का ही कारण होता है। इसलिए श्रमण को स्नेह बंधनों का त्याग करके अपना अधिकांश समय स्वाध्याय और ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिये वस्तुतः जो चित्त के विकार रूपी मल को धोकर अपनी बुद्धि को निर्वाण मार्ग में लगाता है वही सच्चा श्रमण हैं। जो श्रमण मित्रता के वशीभूत हो गृहस्थ की अनुशंसा करता है उसकी यह मधुर भाषिता उसके आत्महित की घातक होती है। सच्चे श्रमण को कौतुहल, लक्षण, स्वप्न और प्रहेलिका आदि से मनोरंजन नहीं करना चाहिये। जो श्रमण इन कार्यों में लिप्त होता है वह श्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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