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डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीज धर्म से बहुत दूर हो जाता है। इसी प्रकार जो मुनि अपने गृहस्थशिष्यों के विविध संस्कारों में अथवा वर-वधु के वैवाहिक प्रसंगों में सम्मिलित होता है अथवा उन संस्कारों को करवाता है और राजा के साथ युद्ध में भाग लेता है वह श्रमणत्व से पृथक है। इसी प्रकार आजीविका अथवा पूजा प्रतिष्ठा के हेतु किंवा ऐन्द्रिक विषय भोगों के लिए गृहस्थों के पीछे-पीछे घूमता है वह श्रामण्य से बहुत दूर है। इसके विपरीत जे श्रमण लक्षण, स्वप्न, प्रहेलिका, शस्त्रकौशल आदि के प्रयोग से रहित हो गया है जिसने गृहस्थों के प्रति राग भाव को समाप्त कर दिया है, जो प्रिय और अप्रिय के समभाव से सहन करता है तथा अकिंचन होकर आत्मार्थ धर्मजीवी होता है वही सच्च श्रमण है।"१४२
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित सच्चे श्रमण को समस्त सांसारिक प्रपन्चों से दूर रखकर ध्यान और स्वाध्याय को ही उसकी जीवन चर्या का प्रमुख अंग है। सच्चे श्रमण के स्वरूप को लेकर जैन और बौद्ध परंपरा का तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन ने प्रस्तुत किया है।१४३ सच्चे ब्राह्मण का लक्षण
ऋषिभाषित श्रमण परंपरा का ग्रंथ है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह ब्राह्मण वर्ग का विरोधी है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि श्रमण परंपरा ने ब्राह्मण परंपरा के कर्मकाण्डों का खुलकर विरोध किया किन्तु उनका यह विरोध वस्तुतः ब्राह्मणों का विरोध न होकर धर्म के नाम पर प्रचलित उन कर्मकाण्डों का विरोध था, जो व्यक्ति की आध्यात्मिकता को धूमिल करते थे। इसलिए श्रमणों ने यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया कि वास्तविक रूप में ब्राह्मण कौन है? श्रमण परंपरा में ऋषिभाषित के अतिरिक्त जैन परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय पच्चीस में और बौद्ध परंपरा के सुत्तनिपात में सच्चे ब्राह्मण के लक्षणों के स्वरूप का विश्लेषण करेंगे। ऋषिभाषित में ब्राह्मण शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ब्राह्मण का प्राकृत रूप माहण है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है "मत मारो"। अतः ब्राह्मण होकर भी तुम युद्ध की शिक्षा क्यों ग्रहण करते हो? इसका तात्पर्य यह है कि ऋषिभाषित के अनुसार सच्चा ब्राह्मण वह है जो अहिंसा का पालन करता है। जो हिंसा से जुड़ा है, उसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता यदि क्षत्रिय और वणिक यज्ञ-याज्ञ करें और ब्राह्मण शस्त्रजीवी हो तो यह उनकी वृत्ति के विपरीत होगा। जिस प्रकार विपरीत दिशाओं से आये हुए अन्ध युगल आपस में टकरा कर समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार अपने स्वभाव से विरूद्ध कर्म करने वाले प्रजाजन भी संघर्ष में फंसकर नष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण राजपथ पर आरूढ होकर युद्ध करते हैं वे ब्रह्म वृत्ति के 142. इसिभासियाई, 27/1, 2, 4, 5 143- जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 384-387
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