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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 51 प्राप्त होती है। इस अध्याय में वे कहते हैं कि पहले यहाँ सब कुछ भव्य यानी नियत या होनहार था परंतु वर्तमान में सब कुछ अभव्य यानी अनियत है।११३ भव्य-अभव्य अथवा नियत-अनियत शब्दों को स्पष्ट करते हुए डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि--"जब तक व्यक्ति अज्ञान में है तब तक उसका वर्तमान उसके पूर्वकृत कर्मों के अनुरूप या नियत ही होता है, किन्तु ज्ञान के होने पर वह अपने भविष्य का निर्माता बनता है। अतः उसका भविष्य उसके पुरुषार्थ पर निर्भर रहता है अर्थात् अनियत होता है। वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति का अतीत नियत होता है क्योंकि उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं होते हैं, किन्तु व्यक्ति का भविष्य अनियत होता है। क्योंकि मनुष्य अपने भविष्य का निर्माता होता है। यदि वह मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको तटस्थ रख ले तो उसका भावी उसके भूत और वर्तमान से भिन्न होगा। कर्म सिद्धांत के अनुसार पूर्व कर्म संस्कार पर मुनष्य का वश नहीं चलता है किन्तु वर्तमान सदैव उसके हाथ में है, और उसके द्वारा मनुष्य अपने भविष्य को चाहे जैसा रूप दे सकता है। व्यक्ति जितना ज्ञानी या जागरूक होता है वह उतना ही अपने भविष्य को सम्यक् दिशा की ओर मोड़ता है। पारंपरिक शब्दावली में कहें तो ज्ञानी अशुभ संस्कारों का क्षय करता है और शुभ संस्कारों का निर्माण करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हरिगिरि प्रस्तुत अध्याय में व्यक्ति को अपने भविष्य के निर्माण की प्रेरणा देते हैं। २५. अम्बड़ परिव्राजक ऋषिभाषित का पच्चीसवाँ अध्ययन अम्बड़ परिव्राजक से संबंधित है। जैन परंपरा के आगम ग्रंथों यथा-भगवती, स्थानांग और औपपातिक आदि में इनका वर्णन उपलब्ध होता है।११४ भगवती सूत्र में इन्हें श्रावस्ती निवासी एक परिव्राजक कहा गया है। ये महावीर के प्रति अत्यंत आस्थावान होते हुए भी अपनी परंपरा के नेता थे। स्थानांग में अन्तकृत् दशा की जिन दस दशाओं या अध्यायों का उल्लेख हुआ है।९१५ उसमें दसवीं दशा अम्बड़ से संबंधित थी, किन्तु वर्तमान अन्तकृत में यह दशा उपलब्ध नहीं है। औपपातिक में अम्बड़ परिव्राजकों की आचार परंपरा का भी विस्तार से वर्णन उपलब्धा होता हैं।११६ इस अध्याय में अंबड़ परिव्राजक की आचार के नियमों के प्रति दृढ़ श्रद्धा पर प्रकाश डालते हुए यह भी कहा गया है कि अपने नियम के पालनार्थ इन्होंने प्राणों की बाजी तक लगा दी थी। 113. सव्वमिणं पुरा भव्वं, इदाणिं पुण अभव्वं। -इसिभासियाई 24/गद्यभाग प्रारंभ 114. (अ) भगवती सूत्र 529-530 (ब) स्थानांग सूत्र 692 (स) औपपातिक सूत्र 38-40 115. स्थानांग सूत्र 692 116. औपपातिक 38-40. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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