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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
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१५. मधुरायण
ऋषिभाषित के पंद्रहवें अध्ययन में मधुरायण के उपदेश संकलित हैं। जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा में ऋषिभषित को छोड़कर अन्य ग्रंथों में हमें इनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है।
ऋषिभाषित में मधुरायण के उपदेश का प्रतिपाद्य विषय क्या है, इस विषय पर विचार करने के पूर्व हमें इस अध्ययन में उनके द्वारा विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को समझना अधिक उचित होगा। स्वयं ऋषिभाषित के टीकाकार ने भी इन शब्दों के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया है। यद्यपि शुब्रिग ने इस दिशा में प्रयत्न अवश्य किया हैं। किन्तु वे भी इसे स्पष्ट नहीं कर सके हैं। इस अध्ययन में मुख्यरूप से तीन शब्दों का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में हुआ है।
डॉ. सागरमल जैन इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- "इस अध्याय में मुख्यतः तीन शब्द 'साता दुक्ख' 'दुक्ख' और 'संत' ये तीन शब्द ऐसे हैं जो अपने अर्थ का स्पष्टीकरण चाहते हैं। जहाँ तक "साता दुक्ख" के अर्थ का प्रश्न है संस्कृत टीकाकार और अन्य सभी ने उसे सुख से उत्पन्न दुःख माना है। वस्तुतः सुख का तात्पर्य यहाँ सुख की आकांक्षा ही लेना होगा। अतः "साता दुक्ख" का तात्पर्य है सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दु:ख। दूसरे शब्दों में सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए जिस व्यक्ति में आकांक्षाएँ जागृत हो, वह व्यक्ति साता दुक्ख अभिभूत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में सुख की आकांक्षा ही साता दुःख है। इसके विपरीत अशाता दुःख से अभिभूत व्यक्ति का दुःख है। निराकांक्ष होने के कारण स्वाभाविक रूप से प्राप्त सांसारिक दुःख ही साता दुःख है- ऐसा अर्थ करने पर प्रथम प्रश्न और उसका उत्तर इस प्रकार बनता है- क्या सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दुःख से अभिभूत व्यक्ति दु:ख को प्रेरित करता है? या निमंत्रित करता है? इसका उत्तर यह दिया गया है कि सुख की आकांक्षा से उत्पन्न दु:खों से अर्थात् सांसारिक वासना के पीछे पागल व्यक्ति ही दुःखों को आमंत्रित करता है अर्थात् कर्मबन्ध करता। वस्तुतः सुख की आकांक्षा करना ही दुःखों को निमंत्रण देना है। सुख की आकांक्षा से दुःखी बना व्यक्ति ही दुखों को निमंत्रित करता है, न कि कष्टजन्य दु:खों से घिरा व्यक्ति। इस प्रकार मधुरायण सांसारिक सुखों को आकांक्षा में ही दु:खों का मूल देखते हैं।
पनः 'संत' शब्द 'शान्त' के अर्थ में न होकर सत्ता के अर्थ में होता। "संत दुक्खी" का अर्थ यहाँ होगा दु:खी होकर। पुनः यहाँ दु:खी होने का अर्थ कामना या आकांक्षा से युक्त होना ही है। अतः "संत दुक्खी दुक्ख उदीरेइ" से अभिप्राय दु:खी होकर ही दु:ख को निमंत्रण दिया जाता है अर्थात् साकांक्ष व्यक्ति ही दु:ख का प्रेरक होता है। इसी प्रकार "नो असंत दुक्खी दुक्ख उदेरई" दुक्ख से दु:खित न होकर दुःख
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